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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - त्रितः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र सु॑वा॒नो धार॑या॒ तनेन्दु॑र्हिन्वा॒नो अ॑र्षति । रु॒जद्दृ॒ळ्हा व्योज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सु॒वा॒नः । धार॑या । तना॑ । इन्दुः॑ । हि॒न्वा॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । रु॒जत् । दृ॒ळ्हा । वि । ओज॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सुवानो धारया तनेन्दुर्हिन्वानो अर्षति । रुजद्दृळ्हा व्योजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सुवानः । धारया । तना । इन्दुः । हिन्वानः । अर्षति । रुजत् । दृळ्हा । वि । ओजसा ॥ ९.३४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (सुवानः) = शरीर में उत्पन्न किया जाता हुआ (इन्दुः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला सोम (धारया) = धारणशक्ति के हेतु से तथा (तना) = शक्तियों के विस्तार के हेतु से (हिन्वानः) = शरीर के अन्दर प्रेरित किया जाता हुआ (प्र अर्षति) = प्रकर्षेण प्राप्त होता है। शरीर में धारण किया हुआ यह सोम हमारा धारण करता है, हमारी शक्तियों का विस्तार करता है। [२] यह सोम (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (दृढा) = दृढ़ भी शत्रु पुरियों को काम-क्रोध-लोभ की नगरियों को (विरुजत्) = विशेषेण भग्न कर देता है । सोमरक्षण से काम-क्रोध-लोभ का विनाश करके ही यह 'त्रित' बनता है, तीनों को तैरनेवाला ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम [क] हमारा धारण करता है, [ख] यह हमारी शक्तियों का विस्तार करता है, [ग] काम-क्रोध-लोभ का विनाश करता है ।

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