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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रभुवसुः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अस॑र्जि॒ रथ्यो॑ यथा प॒वित्रे॑ च॒म्वो॑: सु॒तः । कार्ष्म॑न्वा॒जी न्य॑क्रमीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑र्जि । रथ्यः॑ । य॒था॒ । प॒वित्रे॑ । च॒म्वोः॑ । सु॒तः । कार्ष्म॑न् । वा॒जी । नि । अ॒क्र॒मी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असर्जि रथ्यो यथा पवित्रे चम्वो: सुतः । कार्ष्मन्वाजी न्यक्रमीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असर्जि । रथ्यः । यथा । पवित्रे । चम्वोः । सुतः । कार्ष्मन् । वाजी । नि । अक्रमीत् ॥ ९.३६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] यह सोम (असर्जि) = शरीर में उत्पन्न किया जाता है। शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ यह सोम (यथा रथ्य:) = इस प्रकार है जैसे कि रथ में जुतनेवाला एक उत्तम घोड़ा । यह घोड़ा जैसे लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाला होता है, इसी प्रकार सोम भी हमें जीवनयात्रा को पूर्ण करके लक्ष्य पर पहुँचाता है । यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (चम्वोः) = द्यावापृथिवी के निमित्त, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के निमित्त (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। यह सोम मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल बनाता है और शरीर को तेजस्विता से दीप्त । [२] यह (वाजी) = शक्तिशाली सोम (कार्ष्मन्) = संग्राम में (नि अक्रमीत्) = शत्रुओं को पाँव तले कुचलनेवाला होता है [कार्ष्मयुद्धं इतरेतरकर्षणात्] । रोगकृमियों को नष्ट करके यह जहाँ रोगों को विनष्ट करता है, वहाँ काम-क्रोध-लोभ आदि वासनाओं का भी यह विनाश करनेवाला है।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम [वीर्य] शरीर में सुरक्षित होने पर रोग व वासनारूप शत्रुओं को कुचल डालता है।

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