ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
प्र ये गावो॒ न भूर्ण॑यस्त्वे॒षा अ॒यासो॒ अक्र॑मुः । घ्नन्त॑: कृ॒ष्णामप॒ त्वच॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । गावः॑ । न । भूर्ण॑यः । त्वे॒षाः । अ॒यासः॑ । अक्र॑मुः । घ्नन्तः॑ । कृ॒ष्णाम् । अप॑ । त्वच॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये गावो न भूर्णयस्त्वेषा अयासो अक्रमुः । घ्नन्त: कृष्णामप त्वचम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ये । गावः । न । भूर्णयः । त्वेषाः । अयासः । अक्रमुः । घ्नन्तः । कृष्णाम् । अप । त्वचम् ॥ ९.४१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
विषय - दीप्त गतिशील निर्मल
पदार्थ -
[१] (ये) = जो सोम (गावः न) = [अर्थं गमयन्ति] जैसे पदार्थों का ज्ञान देनेवाले हैं, उसी प्रकार (भूर्णयः) = हमारा भरण करनेवाले हैं। सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर बुद्धि को सूक्ष्म बनाता है। इस सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा हम तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार ये सोम हमारे लिये 'गावः' अर्थों के गमक होते हैं। शरीर में शक्ति का संचार करते हुए ये हमारा भरण करते हैं । [२] (त्वेषाः) = ये सोम ज्ञानदीप्त हैं, हमारे ज्ञान को दीप्त करते हैं। (अयासः) = ये सोम गमनशील हैं। ज्ञानेन्द्रियों के दृष्टिकोण से ये 'त्वेष' हैं, कर्मेन्द्रियों के दृष्टिकोण से 'अयासः ' हैं। ऐसे ये सोम (प्र अक्रमुः) = शरीर में गतिवाले होते हैं । [३] ये सोम (कृष्णां त्वचम्) = हृदय पर आये हुए वासना के मलिन आवरण को (अपघ्नन्तः) = दूर विनष्ट करनेवाले हैं। मस्तिष्क को ये सोम दीप्त बनाते हैं, शरीर को गतिशील तथा हृदय को वासना के मलिन आवरण से रहित ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'दीप्त गतिशील व निर्मल' बनाते हैं।
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