साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
परि॒ सोम॑ ऋ॒तं बृ॒हदा॒शुः प॒वित्रे॑ अर्षति । वि॒घ्नन्रक्षां॑सि देव॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सोमः॑ । ऋ॒तम् । बृ॒हत् । आ॒शुः । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । वि॒ऽघ्नन् । रक्षां॑सि । दे॒व॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सोमः । ऋतम् । बृहत् । आशुः । पवित्रे । अर्षति । विऽघ्नन् । रक्षांसि । देवऽयुः ॥ ९.५६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - 'देवयु' सोम
पदार्थ -
[१] (सोमः) = शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम (आशुः) = हमें शीघ्रता से कार्य करनेवाला बनाता है । यह (पवित्)रे = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत ऋतम् ऋत को परि अर्षति प्राप्त कराता है [परिगमयति] हृदय की पवित्रता के होने पर ही इसका शरीर में रक्षण होता है । और यह शरीर में 'बृहत् ऋत' को प्राप्त कराता है। सोमरक्षक का जीवन ऋतवाला बनता है [regular] व्यवस्थित । [२] यह सोम (रक्षांसि) = रोगकृमियों व राक्षसी भावों को (विघ्नन्) = नष्ट करनेवाला होता है और इस प्रकार (देवयुः) = हमें उस महादेव से मिलानेवाला होता है । सोमरक्षण से दिव्य गुणों का वर्धन होकर अन्ततः प्रभु की प्राप्ति होती है ।
भावार्थ - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमारे लिये 'बृहत् ऋत' को प्राप्त कराता है तथा दिव्य गुणों का हमारे में वर्धन करता है।
इस भाष्य को एडिट करें