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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ते अ॑सृग्र॒मिन्द॑वस्ति॒रः प॒वित्र॑मा॒शव॑: । विश्वा॑न्य॒भि सौभ॑गा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । अ॒सृ॒ग्र॒म् । इन्द॑वः । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । आ॒शवः॑ । विश्वा॑नि । अ॒भि । सौभ॑गा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते असृग्रमिन्दवस्तिरः पवित्रमाशव: । विश्वान्यभि सौभगा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । असृग्रम् । इन्दवः । तिरः । पवित्रम् । आशवः । विश्वानि । अभि । सौभगा ॥ ९.६२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (एते) = ये (इन्दवः) = सोमकण (विश्वानि) = सब (सौभगा अभि) = सौभाग्यों का लक्ष्य करके (तिरः) = तिरोहित रूप में, रुधिर में व्याप्त हुए हुए और अतएव न दिखते हुए रूप में (असृग्रम्) = [सृज्यन्ते] उत्पन्न किये जाते हैं। जब तक ये रुधिर में व्याप्त रहते हैं, तब तक शरीर में सब सौभाग्यों का ये कारण बनते हैं। शरीर में किसी प्रकार के रोग को ये नहीं आने देते, सब इन्द्रियों की शक्तियाँ ठीक बनी रहती है, बुद्धि भी इन्हीं के रक्षण से तीव्र बनती है। [२] ये सोमकण (पवित्रम्) = पवित्र हृदय को (आशवः) = व्यापनेवाले होते हैं। वस्तुतः इनके रक्षण से ही हृदय पवित्र बनता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोमकण सब सौभाग्यों को प्राप्त कराते हैं तथा हमारे हृदयों को पवित्र बनाते हैं ।

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