ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
हि॒न्वन्ति॒ सूर॒मुस्र॑य॒: स्वसा॑रो जा॒मय॒स्पति॑म् । म॒हामिन्दुं॑ मही॒युव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒न्वन्ति॑ । सूर॑म् । उस्र॑यः । स्वसा॑रः । जा॒मयः॑ । पति॑म् । म॒हाम् । इन्दु॑म् । म॒ही॒युवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिन्वन्ति सूरमुस्रय: स्वसारो जामयस्पतिम् । महामिन्दुं महीयुव: ॥
स्वर रहित पद पाठहिन्वन्ति । सूरम् । उस्रयः । स्वसारः । जामयः । पतिम् । महाम् । इन्दुम् । महीयुवः ॥ ९.६५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - उस्त्रि-स्वसा-जामि-महीयु
पदार्थ -
[१] (उस्त्रयः) = [उस्र - going] गतिशील, (स्व-सारः) = आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले, (जामयः) = अपने में सद्गुणों को जन्म देनेवाले लोग (सूरम्) = शक्ति-संचार द्वारा कर्मों में प्रेरित करनेवाले (पतिम्) = रोगकृमि विनाश द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले सोम को (हिन्वन्ति) = शरीर में ही प्रेरित करते हैं। [२] (महीयुवः) = महनीय शरीर को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले लोग (महाम्) = इस महान् (इन्दुम्) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम को अपने अन्दर प्रेरित करते हैं। इस सोम के द्वारा ही शरीर शक्तिशाली बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- सोम का रक्षण करनेवाले 'उस्रि, स्वसृ, जामि व महीयु' होते हैं, गतिशील, आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले, सद्गुणों का विकास करनेवाले, महनीय शरीर की कामनावाले ।
इस भाष्य को एडिट करें