ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
हरिं॑ मृजन्त्यरु॒षो न यु॑ज्यते॒ सं धे॒नुभि॑: क॒लशे॒ सोमो॑ अज्यते । उद्वाच॑मी॒रय॑ति हि॒न्वते॑ म॒ती पु॑रुष्टु॒तस्य॒ कति॑ चित्परि॒प्रिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठहरि॑म् । मृ॒ज॒न्ति॒ । अ॒रु॒षः । न । यु॒ज्य॒ते॒ । सम् । धे॒नुऽभिः॑ । क॒लशे॑ । सोमः॑ । अ॒ज्य॒ते॒ । उत् । वाच॑म् । ई॒रय॑ति । हि॒न्वते॑ । म॒ती । पु॒रु॒ऽस्तु॒तस्य॑ । कति॑ । चि॒त् । प॒रि॒ऽप्रियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिं मृजन्त्यरुषो न युज्यते सं धेनुभि: कलशे सोमो अज्यते । उद्वाचमीरयति हिन्वते मती पुरुष्टुतस्य कति चित्परिप्रिय: ॥
स्वर रहित पद पाठहरिम् । मृजन्ति । अरुषः । न । युज्यते । सम् । धेनुऽभिः । कलशे । सोमः । अज्यते । उत् । वाचम् । ईरयति । हिन्वते । मती । पुरुऽस्तुतस्य । कति । चित् । परिऽप्रियः ॥ ९.७२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
विषय - सर्वप्रिय वस्तु 'सोम'
पदार्थ -
[१] (हरिम्) = रोगों का हरण करनेवाले इस सोम को (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं, इसे वासनाओं से मलिन नहीं होने देते। (अरुषः न) = अत्यन्त आरोचमान-सा होता हुआ (धेनुभिः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणीरूप गौओं के साथ संयुज्यते संयुक्त होता है। सुरक्षित सोम हमारे ज्ञानवर्धन का साधन बनता है। (सोमः) = यह सोम (कलशे) =सोलह कलाओं के आधारभूत इस शरीर में (अज्यते) = अलंकृत होता है। [२] यह सोम (वाचम्) = प्रभु की स्तुतिवाणी को (उदीरयति) = उच्चरित करता है, अर्थात् सोमरक्षण से हमारी स्तुति की वृत्ति बनती है। (मती हिन्वते) = यह सोमरक्षक पुरुष बुद्धिपूर्वक अपने को उन्नतिपथ पर प्रेरित करता है। यह सोम पुरुष्टुतस्य अनन्त स्तुतिवाले उस प्रभु का (कितिचित्) = कितना ही (परिप्रियः) = सब दृष्टिकोणों से प्रिय है। वस्तुतः प्रभु ने यही सर्वोत्तम वस्तु हमें प्राप्त करायी है। इसी के रक्षण से हम प्रभु को भी प्राप्त करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें स्तुतिवाला व बुद्धि से जीवन में चलनेवाला बनाता है। यह सोम प्रभु की सर्वप्रिय वस्तु है । इसके रक्षण से ही हमारा जीवन सुन्दर बनता है।
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