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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒भि प्रि॒याणि॑ पवते॒ चनो॑हितो॒ नामा॑नि य॒ह्वो अधि॒ येषु॒ वर्ध॑ते । आ सूर्य॑स्य बृह॒तो बृ॒हन्नधि॒ रथं॒ विष्व॑ञ्चमरुहद्विचक्ष॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्रि॒याणि॑ । प॒व॒ते॒ । चनः॑ऽहितः । नामा॑नि । य॒ह्वः । अधि॑ । येषु॑ । वर्ध॑ते । आ । सूर्य॑स्य । बृ॒ह॒तः । बृ॒हन् । अधि॑ । रथ॑म् । विष्व॑ञ्चम् । अ॒रु॒ह॒त् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते । आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्रियाणि । पवते । चनःऽहितः । नामानि । यह्वः । अधि । येषु । वर्धते । आ । सूर्यस्य । बृहतः । बृहन् । अधि । रथम् । विष्वञ्चम् । अरुहत् । विऽचक्षणः ॥ ९.७५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] 'आग्नेय व सोम्य' दो भागों में बटे भोजनों में 'सोम्य भोजन' ही सोमरक्षण के लिये हितकर हैं सो उन्हीं का ग्रहण उचित है । यहाँ मन्त्र में कहते हैं कि (चनो हितः) = [हितान: ] हितकर अन्नोंवाला यह सोम (प्रियाणि) = प्रीति के जनक (नामानि) [उदकानि सा० water आप्टे] = रेतः कणों को [आप: रेतो भूत्वा० ] (अभिपवते) = प्राप्त कराता है। (येषु) = जिन रेतः कणों के होने पर (यह्वः) = [यातश्च हूतश्च, यातम् अस्य अस्ति, हूतं अस्य अस्ति] प्रभु की ओर जानेवाला व प्रभु को पुकारनेवाला यह सोमरक्षक पुरुष (अधिवर्धते) = आधिक्येन वृद्धि को प्राप्त करता है। [२] उस समय यह सोमी पुरुष (विचक्षणः) = ज्ञानी बना हुआ (बृहतः सूर्यस्य) = महान् सूर्य के वृद्धि के कारणभूत ज्ञान के (विष्वञ्च) = सब विविध कर्त्तव्यों में सम्यक् प्रेरित होनेवाले (रथम्) = शरीर रथ पर (अधि अरुहत्) = आरुढ़ होता है । रक्षित सोम ही ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और शक्तिवर्धन के द्वारा हमें कर्त्तव्य कर्मों के करने में क्षम करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम्य अन्नों के सेवन से हम सोमरक्षण कर पाते हैं। रक्षित सोम रेतः कणों की शरीर में व्याप्त द्वारा ज्ञान व शक्ति का वर्धन करता है ।

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