ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
ध॒र्ता दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॒ दक्षो॑ दे॒वाना॑मनु॒माद्यो॒ नृभि॑: । हरि॑: सृजा॒नो अत्यो॒ न सत्व॑भि॒र्वृथा॒ पाजां॑सि कृणुते न॒दीष्वा ॥
स्वर सहित पद पाठध॒र्ता । दि॒वः । प॒व॒ते॒ । कृत्व्यः॑ । रसः॑ । दक्षः॑ । दे॒वाना॑म् । अ॒नु॒ऽमाद्यः॑ । नृऽभिः॑ । हरिः॑ । सृ॒जा॒नः । अत्यः॑ । न । सत्व॑ऽभिः । वृथा॑ । पाजां॑सि । कृ॒णु॒ते॒ । न॒दीषु॑ । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धर्ता दिवः पवते कृत्व्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभि: । हरि: सृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुते नदीष्वा ॥
स्वर रहित पद पाठधर्ता । दिवः । पवते । कृत्व्यः । रसः । दक्षः । देवानाम् । अनुऽमाद्यः । नृऽभिः । हरिः । सृजानः । अत्यः । न । सत्वऽभिः । वृथा । पाजांसि । कृणुते । नदीषु । आ ॥ ९.७६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - वृथापाजांसि कृणुते
पदार्थ -
[१] (हरिः) = सब बुराइयों का हरण करनेवाला सोम (दिवः धर्ता) = ज्ञान का धारण करनेवाला होता हुआ (पवते) = प्राप्त होता है। यह सोम (कृत्व्यः रसः) = वह रस है जो कि हमें कर्त्तव्यपालन में समर्थ करता है। (देवानां दक्षः) = देवों को यह दक्ष बनाता है, कार्यकुशल बनाता है । (नृभिः अनुमाद्यः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से रक्षण के अनुपात में अनुमाद्य होता है । जितना- जितना वे इसका रक्षण करते हैं, उतना उतना हर्ष का अनुभव करते हैं । [२] (सत्वभिः) = बलों के हेतु से (सृजान:) = उत्पन्न किया जाता हुआ यह सोम (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान है । जैसे अश्व निरन्तर गतिवाला होता है, ऐसे ही यह सोमरक्षक पुरुष निरन्तर गतिशील होता है । यह सोम (वृधा) = अनायास ही नदीषु स्तवन करनेवाले पुरुषों में (पाजांसि कृणुते) = बलों को करता है। प्रभु स्तोताओं को यह सोम बल सम्पन्न बनाता है ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम ज्ञान का धारण करता है, हमें कर्त्तव्यपालन में समर्थ करता हुआ यह दक्षता को प्राप्त कराता है। हमें शक्तिशाली बनाता है ।
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