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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिर्वाच्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यस्त॒स्थौ भुव॑ना॒न्यम॑र्त्यो॒ विश्वा॑नि॒ सोम॒: परि॒ तान्य॑र्षति । कृ॒ण्वन्त्सं॒चृतं॑ वि॒चृत॑म॒भिष्ट॑य॒ इन्दु॑: सिषक्त्यु॒षसं॒ न सूर्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यः । त॒स्थौ । भुव॑नानि । अम॑र्त्यः । विश्वा॑नि । सोमः॑ । परि॑ । तानि॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । कृ॒ण्वन् । स॒म्ऽचृत॑म् । वि॒ऽचृत॑म् । अ॒भिष्ट॑ये । इन्दुः॑ । सि॒स॒क्ति॒ । उ॒षस॑म् । न । सूर्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोम: परि तान्यर्षति । कृण्वन्त्संचृतं विचृतमभिष्टय इन्दु: सिषक्त्युषसं न सूर्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यः । तस्थौ । भुवनानि । अमर्त्यः । विश्वानि । सोमः । परि । तानि । अर्षति । कृण्वन् । सम्ऽचृतम् । विऽचृतम् । अभिष्टये । इन्दुः । सिसक्ति । उषसम् । न । सूर्यः ॥ ९.८४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (यः) = जो (सोमः) = सोम [वीर्यशक्ति] (भुवनानि आतस्थौ) = सब अगं प्रत्यंगों को अधिष्ठित करता है, वह सोम (अमर्त्यः) = हमें रोगों से मरने नहीं देता । वह सोम (तानि विश्वानि) = उन सब अंग-प्रत्यंगों में (परितान्यर्षति) = चारों ओर गतिवाला होता है। [२] सब अंगों में उपस्थित होकर (संचृतम्) = सब अच्छाइयों का संग्रन्थन [ connecting together] (कृण्वन्) = करता हुआ और इसी प्रकार (विचृतम्) = बुराइयों का विग्रन्थन करता हुआ (अभिष्टये) = हमारी इष्ट प्राप्ति के लिये होता है। यह (इन्दु) = सोम हमारा (सिषक्ति) = इस प्रकार सेवन करता है, (न) = जैसे कि (सूर्यः) = सूर्य (उषसम्) = उषा का । उषा को वस्तुतः सूर्य की प्रथम किरणों से ही दीप्ति प्राप्त होती है। हमारे जीवनों में यह सोम सूर्य के समान आता है, यह हमारे सारे अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाला होता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम हमें रोगों से बचाता है। अच्छाइयों को हमारे साथ मिलाता है, बुराइयों को हमारे से दूर करता है। यह सोम हमारे जीवन के प्रकाश में सूर्य के समान उदित होता है ।

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