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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्र त॑ आ॒शव॑: पवमान धी॒जवो॒ मदा॑ अर्षन्ति रघु॒जा इ॑व॒ त्मना॑ । दि॒व्याः सु॑प॒र्णा मधु॑मन्त॒ इन्द॑वो म॒दिन्त॑मास॒: परि॒ कोश॑मासते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । आ॒शवः॑ । प॒व॒मा॒न॒ । धी॒ऽजवः॑ । मदाः॑ । अ॒र्ष॒न्ति॒ । र॒घु॒जाःऽइ॑व । त्मना॑ । दि॒व्याः । सु॒ऽप॒र्णाः । मधु॑ऽमन्तः । इन्द॑वः । म॒दिन्ऽत॑मासः । परि॑ । कोश॑म् । आ॒स॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त आशव: पवमान धीजवो मदा अर्षन्ति रघुजा इव त्मना । दिव्याः सुपर्णा मधुमन्त इन्दवो मदिन्तमास: परि कोशमासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । आशवः । पवमान । धीऽजवः । मदाः । अर्षन्ति । रघुजाःऽइव । त्मना । दिव्याः । सुऽपर्णाः । मधुऽमन्तः । इन्दवः । मदिन्ऽतमासः । परि । कोशम् । आसते ॥ ९.८६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (ते) = तेरे (आपूर्वः) = शरीर में व्याप्त होनेवाले (धीजवः) = बुद्धियों को प्रेरित करनेवाले (मदाः) = उल्लास के जनक इस (रघुजाः इवः) = शीघ्रगतिवाले अश्वों की तरह (त्मना) = स्वयं अनायास ही (प्र अर्षन्ति) = हमें प्रकर्षेण प्राप्त होते हैं । [२] ये (दिव्याः) = हमारे जीवन को दिव्य बनानेवाले, (सुपर्णाः) = हमारा उत्तमत्ता से पालन व पूरण करनेवाले (मधुमन्तः) = जीवन को मधुर बनानेवाले (इन्दवः) = सोमकण (मदिन्तमासः) = अतिशयेन आनन्द के जनक हैं। ये सोमकण (कोशम्) = इस शरीर रूप कोश में परि आसते चारों ओर स्थित होते हैं। शरीर के अंग-प्रत्यंगों में व्याप्त होकर उन्हें सुन्दर स्वस्थ व सशक्त बनाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - शरीर में व्याप्त होनेवाले सोमकण बुद्धियों को प्रेरित करते हैं। ये हमारे जीवन को 'दिव्य-सुपर्ण व मधुमय' बनाते हैं।

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