ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
प्र तु द्र॑व॒ परि॒ कोशं॒ नि षी॑द॒ नृभि॑: पुना॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष । अश्वं॒ न त्वा॑ वा॒जिनं॑ म॒र्जय॒न्तोऽच्छा॑ ब॒र्ही र॑श॒नाभि॑र्नयन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तु । द्र॒व॒ । परि॑ । कोश॑म् । नि । सी॒द॒ । नृऽभिः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒भि । वाज॑म् । अ॒र्ष॒ । अश्व॑म् । न । त्वा॒ । वा॒जिन॑म् । म॒र्जय॑न्तः । अच्छ॑ । ब॒र्हिः । र॒श॒नाभिः॑ । न॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभि: पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । तु । द्रव । परि । कोशम् । नि । सीद । नृऽभिः । पुनानः । अभि । वाजम् । अर्ष । अश्वम् । न । त्वा । वाजिनम् । मर्जयन्तः । अच्छ । बर्हिः । रशनाभिः । नयन्ति ॥ ९.८७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - संग्राम की ओर
पदार्थ -
हे सोम ! (तु) = तू निश्चय से (प्र द्रव) = प्रकृष्ट गतिवाला हो। (कोशं परि निषीद) = शरीर के प्रत्येक कोश में स्थित हो। (नृभिः) = उन्नति पथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (वाजं अभि अर्ष) = रोगकृमि आदि के साथ संग्राम में गतिवाला हो। इनके साथ संग्राम करके शरीर को आधि-व्याधि से शून्य कर । (वाजिनं अश्वं न) = शक्तिशाली घोड़े की तरह (त्वा) = तुझे (मर्जयन्तः) = शुद्ध करते हुए (रशनाभिः) = स्तुति वाणियों से [रशना tongue] (बर्हिः अच्छा) = वासना शून्य हृदय की ओर (नयन्ति) = ले जाते हैं । स्तुति वाणियों के द्वारा पवित्र करते हुए तुझे अपने अन्दर ही सुरक्षित करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ-स्तुति द्वारा शरीर में सुरक्षित सोम रोगकृमि आदि के साथ संग्राम करके उन्हें विनष्ट करता है ।
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