ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
परि॑ सुवा॒नो हरि॑रं॒शुः प॒वित्रे॒ रथो॒ न स॑र्जि स॒नये॑ हिया॒नः । आप॒च्छ्लोक॑मिन्द्रि॒यं पू॒यमा॑न॒: प्रति॑ दे॒वाँ अ॑जुषत॒ प्रयो॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सु॒वा॒नः । हरिः॑ । अं॒शुः । प॒वित्रे॑ । रथः॑ । न । स॒र्जि॒ । स॒नये॑ । हि॒या॒नः । आप॒त् । श्ल्लोक॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । पू॒यमा॑नः । प्रति॑ । दे॒वान् । अ॒जु॒ष॒त॒ । प्रयः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सुवानो हरिरंशुः पवित्रे रथो न सर्जि सनये हियानः । आपच्छ्लोकमिन्द्रियं पूयमान: प्रति देवाँ अजुषत प्रयोभिः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सुवानः । हरिः । अंशुः । पवित्रे । रथः । न । सर्जि । सनये । हियानः । आपत् । श्ल्लोकम् । इन्द्रियम् । पूयमानः । प्रति । देवान् । अजुषत । प्रयःऽभिः ॥ ९.९२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 92; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - श्लोकम् - इन्द्रियम् [आपत्]
पदार्थ -
(सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ तथा (परिहियानः) = शरीर में चारों ओर प्रेरित किया जाता हुआ यह (हरिः) = सर्वदुःखहर्ता (अंशुः) = सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (सनये) = ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (रथः न) = रथ के समान (सर्जि) = उत्पन्न किया जाता है। जैसे रथ युद्ध में विजय का कारण होता है, उसी प्रकार यह सोम शरीर में विजय का साधन बनता है। (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ वासनाओं से मलिन न होता हुआ यह सोम (श्लोकम्) = प्रभुस्तवन को तथा (इन्द्रियम्) = बल को (आपत्) = प्राप्त होता है। शरीर में सुरक्षित होने पर यह हमें प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला तथा बल सम्पन्न बनाता है। यह सोम (प्रयोभिः) = प्रकृष्ट बलों के साथ [प्रयस्] (देवान् प्रति अजुषत) = दिव्य गुणों के प्रति प्रीतिवाला बनाता है । अर्थात् यह सोम हमें प्रयत्नशील व दिव्य वृत्तिवाला बनाता है।
भावार्थ - भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम विजय प्राप्ति का साधन होता है। यह हमें प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला शक्तिशाली बनाता है। इस से हम क्रियाशील व दिव्य गुण सम्पन्न बन पाते हैं ।
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