ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
स प्र॑थ॒मे व्यो॑मनि दे॒वानां॒ सद॑ने वृ॒धः । सु॒पा॒रः सु॒श्रव॑स्तम॒: सम॑प्सु॒जित् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प्र॒थ॒मे । विऽओ॑मनि । दे॒वाना॑म् । सद॑ने । वृ॒धः । सु॒ऽपा॒रः । सु॒श्रवः॑ऽतमः । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रथमे व्योमनि देवानां सदने वृधः । सुपारः सुश्रवस्तम: समप्सुजित् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । प्रथमे । विऽओमनि । देवानाम् । सदने । वृधः । सुऽपारः । सुश्रवःऽतमः । सम् । अप्सुऽजित् ॥ ८.१३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - अब परमात्मा से सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की रचना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(सः) वह परमात्मा (व्योमनि, सदने) व्योमरूपी स्थान में (देवानाम्) सूर्यादि दिव्य पदार्थों को (प्रथमे) प्रथम (वृधः) रचता है, वह परमात्मा (सुपारः) सब पदार्थों के पारंगत (सुश्रवस्तमः) अत्यन्त यशवाला (समप्सुजित्) और व्याप्ति में सर्वोपरि जेता है ॥२॥
भावार्थ - वह सब पदार्थों को नियम में रखनेवाला परमात्मा सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की सबसे प्रथम रचना करता है, क्योंकि प्रकाश के विना न प्राणी जीवनधारण कर सकते और न संसार का कोई कार्य्य विधिवत् हो सक्ता है, इसी भाव को ऋग्० ८।८।४८।३। में इस प्रकार वर्णन किया है किः-सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः ॥धाता=सबके धारण-पोषण करनेवाले परमात्मा ने सूर्य्य तथा चन्द्रमा पूर्व की न्याईं बनाये, द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक और अन्य प्रकाशमान तथा प्रकाशरहित लोक-लोकान्तरों को भी बनाया=रचा, इसी कारण वह परमात्मा अत्यन्त यशवाला और सर्वोपरि जेता अर्थात् सर्वोत्कृष्ट गुणोंवाला है, जिसकी आज्ञापालन करना मनुष्यमात्र का परम कर्तव्य है ॥
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