ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी । गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्व॑र्वृषत्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑सः । बृ॒हत् । सहः॑ । दा॒धार॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । गि॒रीन् । अज्रा॑न् । अ॒पः । स्वः॑ । वृ॒ष॒ऽत्व॒ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य द्विबर्हसो बृहत्सहो दाधार रोदसी । गिरीँरज्राँ अपः स्वर्वृषत्वना ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । द्विऽबर्हसः । बृहत् । सहः । दाधार । रोदसी इति । गिरीन् । अज्रान् । अपः । स्वः । वृषऽत्वना ॥ ८.१५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - अब उस पूज्य देव का महत्त्व वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(द्विबर्हसः, यस्य) दोनों “पृथिवी और द्युलोक” स्थानों में वृद्धिप्राप्त जिस आपका (बृहत्, सहः) महा पराक्रम (रोदसी, दाधार) द्युलोक पृथिवीलोक को धारण करता है और (स्वः) अन्तरिक्ष में (वृषत्वना) वर्षण के लिये (अज्रान्, गिरीन्) चञ्चल मेघों के प्रति (अपः) जलों को धारण करता है ॥२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उस महान् परमात्मा की महिमा वर्णन की गई है कि वह परमात्मदेव, जिसके पराक्रम से द्युलोक तथा पृथिवी आदि लोक-लोकान्तर अपनी गति करते हुए स्थित हैं, जो अपनी मर्यादा से कभी चलायमान नहीं होते और अन्तरिक्ष में चञ्चल मेघमण्डल को धारण करके समयानुकूल वर्षा करना आपकी महान् महिमा है। अधिक क्या, अनेकानेक आपके ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य्य हैं, जिनका वर्णन करना मनुष्य की बुद्धि से सर्वथा बाहर है ॥२॥
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