ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यव॑: । वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वाम् । अ॒पू॒र्व्य॒ । स्थू॒रम् । न । कत् । चि॒त् । भर॑न्तः । अ॒व॒स्यवः॑ । वाजे॑ । चि॒त्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यव: । वाजे चित्रं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । ऊँ इति । त्वाम् । अपूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्तः । अवस्यवः । वाजे । चित्रम् । हवामहे ॥ ८.२१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - अब इस सूक्त में उन योद्धाओं के स्वामी का माहात्म्य वर्णन करते हुए उसकी सत्क्रिया करना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(अपूर्व्य) हे प्रथम ग्राह्य प्रधान सेनापते ! (न) जिस प्रकार (भरन्तः) भारको ढोने में असमर्थ शक्तिहीन पुरुष भार ढोते हुए (कच्चित्, स्थूरम्) किसी बलवान् दृढ़ पुरुष को बुलाते हैं, वैसे ही महान् कर्म में प्रवृत्त स्वयं रक्षा करने में असमर्थ (अवस्यवः, वयम्) रक्षा चाहनेवाले हमलोग (वाजे, चित्रम्) संग्राम में विविधरूप धारण करनेवाली (त्वाम्, उ) आप ही को (हवामहे) आह्वान करते हैं ॥१॥
भावार्थ - जिस प्रकार कोई भारवाही मनुष्य असमर्थ होकर सहायता के लिये अपने से अधिक शक्तिमान् का आश्रय लेकर ही कार्य सिद्ध कर सकते हैं, इसी प्रकार प्रजाजन भी प्रधान सेनापति का आश्रय लेकर ही बड़े-बड़े उद्देश्यों को सिद्ध कर सकते हैं, क्योंकि हर प्रकार के विघ्नों को नष्ट करने में सेनापति ही समर्थ होता है, अतएव उचित है कि सब प्रजाजन सेनापति का सत्कार करते हुए अपने कार्य्य सिद्ध करने में समर्थ हों ॥१॥
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