ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्मा॑ अ॒न्ये दश॒ प्रति॒ धुरं॒ वह॑न्ति॒ वह्न॑यः । अस्तं॒ वयो॒ न तुग्र्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । अ॒न्ये । दश॑ । प्रति॑ । धुर॑म् । वह॑न्ति । वह्न॑यः । अस्तम् । वयः॑ । न । तुग्र्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मा अन्ये दश प्रति धुरं वहन्ति वह्नयः । अस्तं वयो न तुग्र्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै । अन्ये । दश । प्रति । धुरम् । वहन्ति । वह्नयः । अस्तम् । वयः । न । तुग्र्यम् ॥ ८.३.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(यस्मै) जिस मुझको (अन्ये, दश, वह्नयः) अन्य दश वहनकर्ता इन्द्रिय नामक (वयः) जैसे सूर्य्यकिरण (तुग्र्यं) जल-परमाणुओं को (अस्तं, न) सूर्य्य की ओर वहन करती हैं, इसी प्रकार (धुरं) शरीररूप धुर को (प्रतिवहन्ति) गन्तव्य देश के प्रति वहन करती हैं ॥२३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में इन्द्रिय तथा इन्द्रियवृत्तियों का वर्णन है कि जिस पुरुष के इन्द्रिय संस्कृत हैं, उसकी इन्द्रियवृत्तियें साध्वी तथा संस्कृत होती हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह मनस्वी बनकर इन्द्रियवृत्तियों को सदैव अपने स्वाधीन रक्खे। इसी भाव को कठ० में इस प्रकार वर्णन किया है कि “सदश्वा इव सारथेः”=जिस प्रकार सारथी के संस्कृत और सुचालित घोड़े वशीभूत होते हैं, इसी प्रकार इन्द्रियसंयमी पुरुष के इन्द्रिय वशीभूत होते हैं ॥२३॥
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