ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 1
परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तं सोमो॒ य उ॑त्त॒मं ह॒विः । द॒ध॒न्वाँ यो नर्यो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒तः । सि॒ञ्च॒त॒ । सु॒तम् । सोमः॑ । यः । उ॒त्ऽत॒मम् । ह॒विः । द॒ध॒न्वान् । यः । नर्यः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । आ । सु॒साव॑ । सोम॑म् । अद्रि॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परीतो षिञ्चता सुतं सोमो य उत्तमं हविः । दधन्वाँ यो नर्यो अप्स्व१न्तरा सुषाव सोममद्रिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इतः । सिञ्चत । सुतम् । सोमः । यः । उत्ऽतमम् । हविः । दधन्वान् । यः । नर्यः । अप्ऽसु । अन्तः । आ । सुसाव । सोमम् । अद्रिऽभिः ॥ ९.१०७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(सोमम्) सर्वोत्पादक परमात्मा को (सुतम्) जो सर्वत्र विद्यमान है, (अप्स्वन्तः) जो प्रकृति के सूक्ष्म कारण में विराजमान है, उसको (अद्रिभिः) चितवृत्तियों द्वारा यज्ञ का अधिष्ठाता (आसुषाव) भली-भाँति साक्षात्कार करता है, (यः, सोमः) जो सोम (उत्तमं, हविः) विद्वानों का सर्वोपरि पूजनीय है, (नर्यः) सब नरों का हितकारी है तथा (दधन्वान्) सबको धारण करता हुआ जो सर्वत्र विद्यमान है, उसको (इतः) यज्ञादि कर्मों के अनन्तर ज्ञानवृत्तिरूप वृष्टि से (परिषिञ्चत) परिसिञ्चन करें ॥१॥
भावार्थ - सोम, जो सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण है और जो सौम्य स्वभावों का प्रदान करनेवाला है, वह सोमरूप परमात्मा संसार में ओत-प्रोत हो रहा है। उसका अपनी ज्ञानरूपी वृत्तियों द्वारा साक्षात् करना ही वृत्तियों से सिञ्चन करना है ॥१॥
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