ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री
स्वरः - षड्जः
परि॑ सुवा॒नश्चक्ष॑से देव॒माद॑न॒: क्रतु॒रिन्दु॑र्विचक्ष॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सु॒वा॒नः । चक्ष॑से । दे॒व॒ऽमाद॑नः । क्रतुः॑ । इन्दुः॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सुवानश्चक्षसे देवमादन: क्रतुरिन्दुर्विचक्षणः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सुवानः । चक्षसे । देवऽमादनः । क्रतुः । इन्दुः । विऽचक्षणः ॥ ९.१०७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(चक्षसे) सब लोगों की ज्ञानवृद्धि के लिये (परिसुवानः) ज्ञानरूपी दीप्ति से प्रकट हुआ परमात्मा उपासकों के ध्यानगोचर होता है, वह परमात्मा (देवमादनः) विद्वानों को आनन्द देनेवाला है, (क्रतुः) यज्ञरूप है, (इन्दुः) स्वयंप्रकाश है, (विचक्षणः) विलक्षण प्रतिभावाला अर्थात् सर्वज्ञ है ॥३॥
भावार्थ - जिस समय उस निराकार का ध्यान किया जाता है, उस समय उसके सद्गुण उपासक के हृदय में आविर्भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात् उसके सत्, चित्, आनन्द इत्यादि रूप प्रतीत होने लगते हैं, यही परमात्मदेव का साक्षात्कार है ॥३॥
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