ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र नि॒म्नेने॑व॒ सिन्ध॑वो॒ घ्नन्तो॑ वृ॒त्राणि॒ भूर्ण॑यः । सोमा॑ असृग्रमा॒शव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नि॒मेन॑ऽइव । सिन्ध॑वः । घ्नन्तः॑ । वृ॒त्राणि॑ । भूर्ण॑यः । सोमाः॑ । अ॒सृ॒ग्र॒म् । आ॒शवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र निम्नेनेव सिन्धवो घ्नन्तो वृत्राणि भूर्णयः । सोमा असृग्रमाशव: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । निमेनऽइव । सिन्धवः । घ्नन्तः । वृत्राणि । भूर्णयः । सोमाः । असृग्रम् । आशवः ॥ ९.१७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - अब उपासक के हृदय में परमात्मा का प्रकाश कथन करते हैं।
पदार्थ -
(सोमाः) उक्त सौम्यस्वभाववाला परमात्मा (वृत्राणि घ्नन्तः) अज्ञानों का नाश करता हुआ “वृणोत्याच्छादयत्यात्मानमिति वृत्रमज्ञानम्” (भूर्णयः) शीघ्र गतिशील (आशवः) सर्वव्यापक “अश्नुते व्याप्नोति सर्वमित्याशुः” (सिन्धवः प्रनिम्नेन इव) नदियें जैसे शीघ्र गतिशील नीचे की ओर जाती हैं, उसी प्रकार वह (असृग्रम्) भक्तों के हृदय में प्रकाशित होता है ॥१॥
भावार्थ - जो लोग शुद्ध हृदय से उसकी उपासना करते हैं और यम-नियमों द्वारा अपने आत्मा को संस्कृत करते हैं, उनके हृदय में अतिशीघ्र परमात्मा का प्रकाश उत्पन्न होता है ॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें