ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
वृषा॑ पुना॒न आ॒युषु॑ स्त॒नय॒न्नधि॑ ब॒र्हिषि॑ । हरि॒: सन्योनि॒मास॑दत् ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । पु॒ना॒नः । आ॒युषु॑ । स्त॒नय॑न् । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । हरिः॑ । सन् । योनि॑म् । आ । अ॒स॒द॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा पुनान आयुषु स्तनयन्नधि बर्हिषि । हरि: सन्योनिमासदत् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । पुनानः । आयुषु । स्तनयन् । अधि । बर्हिषि । हरिः । सन् । योनिम् । आ । असदत् ॥ ९.१९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(वृषा) सब कामनाओं का देनेवाला (आयुषु पुनानः) सब मनुष्यों को पवित्र करता हुआ (अधि बर्हिषि स्तनयन्) प्रकृति में पञ्चतन्मात्रादि कारणों को उत्पन्न करता हुआ वह परमेश्वर (हरिः सन्) अज्ञानादिकों का नाश करता हुआ (योनिम् आसदत्) प्रकृतिरूप योनि को प्राप्त होता है ॥३॥
भावार्थ - परमात्मा जब प्रकृति के साथ मिलता है अर्थात् अपनी कृति से प्रकृति में नाना प्रकार की चेष्टायें उत्पन्न करता है, तो प्रकृति में पञ्चतन्मात्रादि कार्य उत्पन्न होते हैं अर्थात् सूक्ष्म भूतों के कारण उत्पन्न होते हैं। इस कार्यावस्था में प्रकृतिरूप योनि अर्थात् उपादान कारण का परमात्मा आश्रयण करता है, जैसा कि ‘योनिश्चेह गीयते’ वे० १।४।२७। इस व्याससूत्र में भी योनिनाम प्रकृति का स्पष्ट है ॥३॥
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