ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - दृळहच्युतः आगस्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
पव॑स्व दक्ष॒साध॑नो दे॒वेभ्य॑: पी॒तये॑ हरे । म॒रुद्भ्यो॑ वा॒यवे॒ मद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । द॒क्ष॒ऽसाध॑नः । दे॒वेभ्यः॑ । पी॒तये॑ । ह॒रे॒ । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । वा॒यवे॑ । मदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्य: पीतये हरे । मरुद्भ्यो वायवे मद: ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । दक्षऽसाधनः । देवेभ्यः । पीतये । हरे । मरुत्ऽभ्यः । वायवे । मदः ॥ ९.२५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - मुक्ति का धाम एकमात्र परमात्मा है, अब इस बात का वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(हरे) हे परमात्मन् ! सब दुखों के हरनेवाले जगदीश्वर ! आप (वायवे) कर्मयोगी पुरुष के लिये (मदः) आनन्दस्वरूप हैं (मरुद्भ्यः) और ज्ञानयोगियों के लिये भी आनन्दस्वरूप हैं आप (देवेभ्यः) उक्त विद्वानों की (पीतये) तृप्ति के लिये (दक्षसाधनः) पर्याप्त साधनोंवाले हैं, इसलिये आप हमें पवित्र करें ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा के आनन्द का अनुभव केवल ज्ञानयोगी और कर्मयोगी पुरुष ही कर सकते हैं, अन्य नहीं। जो पुरुष अयोगी है अर्थात् जिस पुरुष का किसी तत्त्व के साथ योग नहीं, वह कर्मयोगी व ज्ञानयोगी नहीं बन सकता ॥१॥
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