ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - इध्मवाहो दाळर्हच्युतः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तम॑मृक्षन्त वा॒जिन॑मु॒पस्थे॒ अदि॑ते॒रधि॑ । विप्रा॑सो॒ अण्व्या॑ धि॒या ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ॒मृ॒क्ष॒न्त॒ । वा॒जिन॑म् । उ॒पस्थे॑ । अदि॑तेः । अधि॑ । विप्रा॑सः । अण्व्या॑ । धि॒या ॥
स्वर रहित मन्त्र
तममृक्षन्त वाजिनमुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्व्या धिया ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । अमृक्षन्त । वाजिनम् । उपस्थे । अदितेः । अधि । विप्रासः । अण्व्या । धिया ॥ ९.२६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वर किस प्रकार बुद्धिविषय होता है, अब इस बात का उपदेश करते हैं।
पदार्थ -
(विप्रासः) धारणा-ध्यानादि साधनों से शुद्ध की हुई बुद्धिवाले लोग (अण्व्या) सूक्ष्म (धिया) बुद्धि द्वारा (अदितेः अधि) सत्यादिक ज्योतियों के अधिकरणस्वरूप (तम् वाजिनम्) उस बलस्वरूप परमात्मा को (उपस्थे) अपने अन्तःकरण में (अमृक्षन्त) शुद्ध ज्ञान का विषय करते हैं ॥१॥
भावार्थ - जिन लोगों ने निर्विकल्प-सविकल्प समाधियों द्वारा अपने चितवृत्ति को स्थिर करके बुद्धि को परमात्मविषयिणी बनाया है, वे लोग सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। अर्थात् उसको आत्मसुख के समान अनुभव का विषय बना लेते हैं। तात्पर्य्य यह है कि जिस प्रकार अपने आनन्दादि गुण प्रतीत होते हैं, इसी प्रकार योगी पुरुषों को परमात्मा के आनन्दादि गुणों की प्रतीति होती है ॥१॥
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