ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
ए॒ष दे॒वो अम॑र्त्यः पर्ण॒वीरि॑व दीयति । अ॒भि द्रोणा॑न्या॒सद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । दे॒वः । अम॑र्त्यः । प॒र्ण॒वीःऽइ॑व । दी॒य॒ति॒ । अ॒भि । द्रोणा॑नि । आ॒ऽसद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष देवो अमर्त्यः पर्णवीरिव दीयति । अभि द्रोणान्यासदम् ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । देवः । अमर्त्यः । पर्णवीःऽइव । दीयति । अभि । द्रोणानि । आऽसदम् ॥ ९.३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - अब पूर्वोक्त परमात्मदेव के गुणों का कथन करते हैं।
पदार्थ -
(एष देवः) जिस परमात्मदेव का पूर्व वर्णन किया गया, वह (अमर्त्यः) अविनाशी है। (आसदम्) सर्वत्र व्याप्त होने के लिये वह परमात्मा (अभि द्रोणानि) प्रत्येक ब्रह्माण्ड को (पर्णवीः) विद्युत् शक्ति के (इव) समान (दीयति) प्राप्त है ॥१॥
भावार्थ - दीव्यतीति देव:=जो सबको प्रकाश करे, उसको देव कहते हैं। सर्वप्रकाशक देव अनादिसिद्ध और अविनाशी है, उसकी गति प्रत्येक ब्रह्माण्ड में है, वही परमात्मा इस संसार की उत्पति स्थिति संहार का करनेवाला है, उसी की उपासना सबको करनी चाहिये ॥१॥
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