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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
परि॒ सोम॑ ऋ॒तं बृ॒हदा॒शुः प॒वित्रे॑ अर्षति । वि॒घ्नन्रक्षां॑सि देव॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सोमः॑ । ऋ॒तम् । बृ॒हत् । आ॒शुः । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । वि॒ऽघ्नन् । रक्षां॑सि । दे॒व॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सोमः । ऋतम् । बृहत् । आशुः । पवित्रे । अर्षति । विऽघ्नन् । रक्षांसि । देवऽयुः ॥ ९.५६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मा सदाचारियों को ही ज्ञानगोचर हो सकता है, यह कहते हैं।
पदार्थ -
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (ऋतं बृहत् आशुः) सत्यस्वरूप और सबसे महान् तथा शीघ्रगतिवाले हैं (देवयुः) सत्कर्मियों को चाहते हुए और (रक्षांसि विघ्नन्) दुष्कर्मियों को नाश करते हुए (पवित्रे अर्षति) पवित्र अन्तःकरणों में निवास करते हैं ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा कर्मों का यथायोग्य फलप्रदाता है; इसलिए उसके उपासक को चाहिए कि वह सत्कर्म करता हुआ उसका उपासक बने, ताकि उसे परमात्मा के दण्ड का फल न भोगना पड़े। तात्पर्य यह है कि प्रार्थना उपासना से केवल हृदय की शुद्धि होती है, पापों की क्षमा नहीं होती ॥१॥
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