ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
वृष्ण॑स्ते॒ वृष्ण्यं॒ शवो॒ वृषा॒ वनं॒ वृषा॒ मद॑: । स॒त्यं वृ॑ष॒न्वृषेद॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठवृष्णः॑ । ते॒ । वृष्ण्य॑म् । शवः॑ । वृषा॑ । वन॑म् । वृषा॑ । मदः॑ । स॒त्यम् । वृ॒ष॒न् । वृषा॑ । इत् । अ॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वनं वृषा मद: । सत्यं वृषन्वृषेदसि ॥
स्वर रहित पद पाठवृष्णः । ते । वृष्ण्यम् । शवः । वृषा । वनम् । वृषा । मदः । सत्यम् । वृषन् । वृषा । इत् । असि ॥ ९.६४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे परमात्मन् ! (वृष्णः) वर्षणशील (ते) आपका (मदः) आनन्द (वृषा) वर्षक है। तथा (ते) तुम्हारा (शवः) बल (वृष्ण्यं) वर्षणशील है और तुम्हारा (वृषा) वर्षणशील (सत्यं) सत्यस्वरूप (वनम्) भजन करने योग्य है और एकमात्र (वृषन्) वर्षक आप ही (असि) उपासना करने योग्य हैं ॥२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में एकमात्र परमात्मा को उपास्यरूप से वर्णन किया गया है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर से भिन्न सत्यादि गुणों का धाम अन्य कोई पदार्थ नहीं है ॥२॥
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