ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
प्र राजा॒ वाचं॑ ज॒नय॑न्नसिष्यदद॒पो वसा॑नो अ॒भि गा इ॑यक्षति । गृ॒भ्णाति॑ रि॒प्रमवि॑रस्य॒ तान्वा॑ शु॒द्धो दे॒वाना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । राजा॑ । वाच॑म् । ज॒नय॑न् । अ॒सि॒स्य॒द॒त् । अ॒पः । वसा॑नः । अ॒भि । गाः । इ॒य॒क्ष॒ति॒ । गृ॒भ्णाति॑ । रि॒प्रम् । अविः॑ । अ॒स्य॒ । तान्वा॑ । शु॒द्धः । दे॒वाना॑म् । उप॑ । या॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र राजा वाचं जनयन्नसिष्यददपो वसानो अभि गा इयक्षति । गृभ्णाति रिप्रमविरस्य तान्वा शुद्धो देवानामुप याति निष्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । राजा । वाचम् । जनयन् । असिस्यदत् । अपः । वसानः । अभि । गाः । इयक्षति । गृभ्णाति । रिप्रम् । अविः । अस्य । तान्वा । शुद्धः । देवानाम् । उप । याति । निःऽकृतम् ॥ ९.७८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - अब सर्वनियामक परमात्मा के ऐश्वर्य का उपदेश करते हैं।
पदार्थ -
(राजा) सबका प्रकाशक परमात्मा (वाचम्) वेदरूपी वाणी को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (प्रासिष्यदत्) संसार को उत्पन्न करता है और (अपः) कर्मों को (वसानः) धारण करता हुआ (गाः) पृथिव्यादिलोक-लोकान्तरों के (अभि) सम्मुख (इयक्षति) गति करता है। जो पुरुष (अस्य) उस परमात्मा की (तान्वा) शक्ति से (रिप्रम्) अपने दोषों को (गृभ्णाति) ग्रहण कर लेता है अर्थात् उनको समझकर मार्जन कर लेता है, इस प्रकार (अविः) सुरक्षित होकर (शुद्धः) शुद्ध है तथा (देवानाम्) देवताओं के (निष्कृतम्) पद को (उपयाति) प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ - जो पुरुष परमात्मा के जगत्कर्तृत्व में विश्वास करता है, वह उसकी उपासना द्वारा शुद्ध होकर देवपद को प्राप्त होता है ॥१॥
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