ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
प्र णो॑ धन्व॒न्त्विन्द॑वो मद॒च्युतो॒ धना॑ वा॒ येभि॒रर्व॑तो जुनी॒मसि॑ । ति॒रो मर्त॑स्य॒ कस्य॑ चि॒त्परि॑ह्वृतिं व॒यं धना॑नि वि॒श्वधा॑ भरेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नः॒ । ध॒न्व॒न्तु॒ । इन्द॑वः । म॒द॒ऽच्युतः॑ । धना॑ । वा॒ । येभिः॑ । अर्व॑तः । जु॒नी॒मसि॑ । ति॒रः । मर्त॑स्य । कस्य॑ । चि॒त् । परि॑ऽह्वृतिम् । व॒यम् । धना॑नि । वि॒श्वऽधा॑ । भ॒रे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र णो धन्वन्त्विन्दवो मदच्युतो धना वा येभिरर्वतो जुनीमसि । तिरो मर्तस्य कस्य चित्परिह्वृतिं वयं धनानि विश्वधा भरेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । नः । धन्वन्तु । इन्दवः । मदऽच्युतः । धना । वा । येभिः । अर्वतः । जुनीमसि । तिरः । मर्तस्य । कस्य । चित् । परिऽह्वृतिम् । वयम् । धनानि । विश्वऽधा । भरेमहि ॥ ९.७९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(मदच्युतः) सबको आनन्द देनेवाला परमात्मा (इन्दवः) जो प्रकाशस्वरूप है, वह (नः) हमको (प्रधन्वन्तु) प्राप्त हो (वा) अथवा (धना) गोहिरण्यरूप धन हमको प्रदान करे (येभिः) जिन धनों से हम (अर्वतः) बलवाले शत्रुओं को (जुनीमसि) जीतें, (कस्यचित् मर्तस्य) किसी के मनुष्य का (तिरः) तिरस्कार करके (परिह्वृतिम्) पीड़ा देकर (वयम्) हम लोग (धनानि) धनों को (विश्वधा) सदैव (भरेमहि) धारण न करें ॥२॥
भावार्थ - मनुष्य को परमात्मा से सदैव इस प्रकार के बल की याचना करनी चाहिये कि वह किसी मनुष्य को अन्याय से पीड़ा देकर धन का संग्रह न करे, किन्तु यदि धनसंग्रह की इच्छा हो, तो वह अपने शत्रुओं को पराजय करके धन का लाभ करे ॥२॥
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