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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    वसोः॑ प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्यसि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि। प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। मा॒त॒रिश्व॑नः। घ॒र्मः। असि॒। वि॒श्वधा॒ इति॑ वि॒श्वधाः॑। अ॒सि॒। प॒र॒मेण॑। धाम्ना॑। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त् ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मा सि विश्वधाऽअसि। परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिह्वार्षीत्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वसोः। पवित्रं। असि। द्यौः। असि। पृथिवी। असि। मातरिश्वनः। घर्मः। असि। विश्वधा इति विश्वधाः। असि। परमेण। धाम्ना। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -

    शतपथ [ १ । ७। १। ९ , १४ ] में ‘यज्ञो वै वसुः’ इन शब्दों में वसु का अर्थ यज्ञ किया है। ‘वासयति’ इस व्युत्पत्ति से यह ठीक भी है, क्योंकि यज्ञ ही बसाता है। यज्ञ के अभाव में नाश-ही-नाश है। ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’ यज्ञहीन का न यह लोक है, न परलोक। इस यज्ञ के द्वारा मनुष्य के जीवन का सुन्दर निर्माण होता है, अतः प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं—

    १. ( वसोः ) = यज्ञ से ( पवित्रम् असि ) = तू पवित्र-ही-पवित्र बना है। हमारे जीवनों में जितना-जितना यज्ञ का अंश आता जाता है, उतना-उतना ही हमारा जीवन पवित्र बनता जाता है। यज्ञ परार्थ व परोपकार है। वह पुण्य के लिए होता है। अयज्ञ स्वार्थ है, परापकार है, परपीड़न है और पाप का कारण है। 

    २. इस यज्ञ से ही तू ( द्यौः असि ) = प्रकाशमय जीवनवाला है। तेरा मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान-सूर्य से चमकता है। यज्ञ में प्रथम स्थान देवपूजा का है। यह देवपूजा तेरे मस्तिष्क को अधिक और अधिक ज्योतिर्मय करती चलती है। 

    ३. ( पृथिवी असि ) = ‘प्रथ विस्तारे’, इस यज्ञ से तू अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला है। यज्ञमय जीवन विलासमय जीवन का प्रतिरूप=उलटा है, अतः यह शक्तियों के विस्तार का कारण बनता है। 

    ४. ( मातरिश्वनः घर्मः असि ) = इस यज्ञमय जीवन के कारण ही तू वायु = प्राण की उष्णतावाला है, अर्थात् तेरी प्राणशक्ति की वृद्धि हुई है। 

    ५. इस बढ़ी हुई शक्ति से ही तू ( विश्वधाः असि ) = सबका धारण करनेवाला बनता है। तेरी शक्ति सदा औरों के रक्षण का कारण बनती है। 

    ६. यह औरों की रक्षा करनेवाली शक्ति ही तो उत्कृष्ट शक्ति है। निकृष्ट तेज औरों का नाश करता है, मध्यम तेज अपने ही धारण में विनियुक्त होता है, परन्तु उत्कृष्ट तेज सभी के धारण का कारण बनता है। इस ( परमेण धाम्ना ) = उत्कृष्ट तेज से ( दृंहस्व ) = तू अपने को दृढ़ बना और सबका धारण करता हुआ ‘विश्वधा’ बन।

    ७. ( मा ह्वाः ) = अपने जीवन में तू कभी कुटिल गतिवाला मत बन, सदा सरल मार्ग को अपनानेवाला बन। यज्ञ के साथ कुटिलता का सम्बन्ध है ही नहीं। 

    ८. ( ते ) = तेरे विषय में ( यज्ञपतिः ) = इस सृष्टि-यज्ञ का रक्षक प्रभु ( मा ह्वार्षीत् ) = कठोर नीति का अवलम्बन न करे। प्रभु ने कहा और तूने किया। प्रभु के इस ‘साम’—शान्त उपदेश को तू सदा सुन। तेरे विषय में प्रभु को ‘दान, भेद व दण्ड’ के प्रयोग की आवश्यकता ही न हो। आर्जव = सरलता ही ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग है। इस मार्ग का अनुसरण करके ही यह ‘परमेष्ठी’ = परम स्थान में स्थित होगा और यज्ञ की भावना को अपनानेवाला ‘प्रजापति’ बनेगा।

    भावार्थ -

    भावार्थ—यज्ञ से मैं पवित्र, ज्योतिर्मय, विकसित शक्तियोंवाला, प्राणशक्ति से पूर्ण और लोकहित करनेवाला बनूँ। अपने को शक्तियों से दृढ़ बनाऊँ, कुटिल नीति को अपनाकर कभी दण्ड का भागी न बनूँ।

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