Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    1

    कस्त्वा॑ युनक्ति॒ स त्वा॑ युनक्ति॒ कस्मै॑ त्वा युनक्ति॒ तस्मै॑ त्वा युनक्ति। कर्म॑णे वां॒ वेषा॑य वाम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। सः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कर्म्म॑णे। वां॒। वेषा॑य। वा॒म् ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वाँवेषाय वाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। त्वा। युनक्ति। सः। त्वा। युनक्ति। कस्मै। त्वा। युनक्ति। तस्मै। त्वा। युनक्ति। कर्म्मणे। वां। वेषाय। वाम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    गत मन्त्र में सत्य के व्रत लेने का उल्लेख है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि प्रभु ही सदा सत्य बोलने की प्रेरणा दे रहे हैं। 

    १. ( कः ) = वे सुखस्वरूप प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = सत्य बोलने के लिए प्रेरित करते हैं, क्योंकि सत्य ही मानव जीवन को स्वर्गमय बनाता है। ( सः ) = वे सदा से प्रसिद्ध प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = इस सत्य के लिए प्रेरित कर रहे हैं। 

    २. ( कस्मै ) = सुख-प्रप्ति के लिए वे प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = कर्मों में व्यापृत करते हैं, ( तस्मै ) = उस उत्कृष्ट लोक की प्राप्ति के लिए वे ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = सत्य में प्रेरित करते हैं। सत्य से ‘प्रेय व श्रेय’ दोनों की ही साधना होती है। वैशेषिक दर्शन के शब्दों में सत्य ही ‘अभ्युदय व निःश्रेयस’ को सिद्ध करता है, अतः सत्य ही धर्म है।

    ३. ( वाम् ) = हे पति व पत्नी! आप दोनों को वे प्रभु ( कर्मणे ) = कर्म के लिए प्रेरित कर रहे हैं। निरन्तर कर्म में लगे रहना ही ‘सत्य’ है, आलस्य व अकर्मण्यता ‘असत्य’ है। आत्मा का अर्थ ‘अत सातत्यगमने’ = निरन्तर गमन है। क्रिया ही आत्मा का अध्यात्म व स्वभाव है। क्रिया गई और आत्मत्व नष्ट हुआ।

    ४. ( वेषाय ) = [ विष्लृ व्याप्तौ ] व्याप्ति के लिए, व्यापक बनने के लिए, उदार मनोवृत्ति को धारण करने के लिए वे प्रभु ( वाम् ) = आपको प्ररेणा देते हैं। संकुचित मनोवृत्ति में असत्य का समावेश हो जाता है, विशालता में ही पवित्रता व सत्य की स्थिति है।

    एवं, मन्त्र के पूर्वाद्ध में कहा है कि [ क ] सुखस्वरूप, सदा से प्रसिद्ध, स्वयम्भू, सत्यस्वरूप परमात्मा ही सत्य ही प्रेरणा दे रहे हैं तथा [ ख ] वे प्रभु सत्य की प्रेरणा इस लोक को सुखमय बनाने तथा परलोक को सिद्ध करने के लिए दे रहे हैं। मन्त्र के उत्तरार्द्ध में कहा है कि इस सत्य की प्रतिष्ठा के लिए क्रियाशीलता व उदारता को अपनाना आवश्यक है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — [ क ] प्रभु सत्य की प्रेरणा दे रहे हैं [ ख ] इसी से दोनों लोकों का कल्याण सिद्ध होता है, [ ग ] सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हम क्रियाशील व उदार बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top