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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् अतिजगती, स्वरः - निषादः
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    धूर॑सि॒ धूर्व॒ धूर्व॑न्तं॒ धूर्व॒ तं यो॒ऽस्मान् धूर्व॑ति॒ तं धू॑र्व॒ यं व॒यं धूर्वा॑मः। दे॒वाना॑मसि॒ वह्नि॑तम॒ꣳ सस्नि॑तमं॒ पप्रि॑तमं॒ जुष्ट॑तमं देव॒हूत॑मम्॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धूः। अ॒सि॒। धूर्व॑। धूर्व॑न्तं। धूर्व॑। तं। यः। अ॒स्मान्। धूर्व॑ति। तं। धू॒र्व॒। यं। व॒यं। धूर्वा॑मः। दे॒वाना॑म्। अ॒सि॒। वह्नि॑तम॒मिति॒ वह्नि॑ऽतमम्। सस्नि॑तम॒मिति॒ सस्नि॑ऽतमम्। पप्रि॑तम॒मिति॒ पप्रि॑ऽतमम्। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। दे॒व॒हूत॑म॒मिति दे॒व॒हूऽत॑मम् ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तँ यो स्मान्धूर्वति तं धूर्व यँ वयन्धूर्वामः । देवानामसि वह्नितमँ सम्नितमं पप्रितमंञ्जुष्टतमन्देवहूतमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    धूः। असि। धूर्व। धूर्वन्तं। धूर्व। तं। यः। अस्मान्। धूर्वति। तं। धूर्व। यं। वयं। धूर्वामः। देवानाम्। असि। वह्नितमिति वह्निऽतमम्। सस्नितममिति सस्निऽतमम्। पप्रितममिति पप्रिऽतमम्। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। देवहूतममिति देवहूऽतमम्॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 8
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    पदार्थ -

    १. ( धूः असि ) = हे प्रभो! वस्तुतः आप ही सब राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाले हैं, ( धूर्वन्तम् ) = हमारा संहार करनेवाली इन राक्षसी वृत्तियों का आप ( धूर्व ) = हिंसन करें। ( यः ) = जो अदान की वृत्ति भोगासक्त करके ( अस्मान् ) = हमें ( धूर्वति ) = हिंसित करती है ( तम् धूर्व ) = उसे आप समाप्त कर दीजिए। ( यम् ) = जिस राक्षसी व अदान की वृत्ति को ( वयं धूर्वामः ) = हम हिंसित करने का प्रयत्न करते हैं ( तम् धूर्व ) = उसे आप हिंसित कीजिए, ये वृत्तियाँ तो हमारी हिंसा पर तुली हुई हैं। आपकी कृपा से ही हम इन्हें पराजित करके अपनी रक्षा कर सकेंगे। भोगवाद की समाप्ति ही दिव्य जीवन का आरम्भ करती है।

    २. हे प्रभो! आप ही ( देवानाम् ) = सब दिव्य गुणों के ( वह्नितमम् ) = सर्वाधिक प्राप्त करानेवाले हैं। अन्य मन्त्र में स्पष्ट कहा है —‘यं यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्’ = प्रभु-कृपा से ही मनुष्य उग्र, उदात्त [ noble ], ज्ञानी, तत्त्वद्रष्टा = [ ऋषि ] व सुबुद्धि बना करता है। 

    ३. ( सस्नितमम् ) = [ ष्णा शौचे ] आप हमारे जीवनों को अधिक-से-अधिक शुद्ध व पवित्र बनाते हैं। आपके चरणों में उपस्थित होने पर सब मलिनताएँ दग्ध हो जाती हैं। आपके उपासना-जल में हमारा जीवन धुल-सा जाता है। 

    ४. ( पप्रितमम् ) = [ प्रा पूरणे ], हमारे जीवन-क्षेत्र को शुद्ध करके आप उसे दिव्य गुणों के बीजों से भर देते हैं। यहाँ दिव्य गुणों के अंकुर उपजते हैं और हमारा क्षेत्र दैवीसम्पत्तिरूपी शस्य से परिपूर्ण हो जाता है।

    ५. ( जुष्टतमम् ) = [ जुषी प्रीतिसेवनयोः ] हे प्रभो! आप समझदार व्यक्तियों से प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हो। ( देवहूतमम् ) = देवताओं से अधिक-से-अधिक पुकारे जाते हो। देव तो देव बन ही इसीलिए पाते हैं कि वे आपका उपासन करते हैं। आपके उपासन से उनके अन्दर घुसे हुए ‘काम’ का दहन हो जाता है। इस कामरूप वृत्र [ ज्ञान पर पर्दा डालनेवाले ] के विनाश से उन उपासकों का हृदय ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठता है और इस ज्ञान-दीपन से वे देव [ देवो दीपनात् ] बन जाते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हे प्रभो! आपकी कृपा से हम नाशक वृत्तियों का ध्वंस करके अपने को सुरक्षित कर सकें। आपकी कृपा से ही हमारा हृदय दैवी वृत्तियोंवाला बन पाएगा। आपका उपासन ही हमें पवित्र करेगा।

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