यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 24
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - भूरिक आर्षी जगती,
स्वरः - निषादः
2
ह॒ꣳसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद् व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत्॥२४॥
स्वर सहित पद पाठह॒ꣳसः। शु॒चि॒षत्। शु॒चि॒सदिति॑ शु॒चि॒ऽसत्। वसुः॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सदित्य॑न्तरिक्ष॒ऽसत्। होता॑। वे॒दि॒षत्। वे॒दि॒सदिति॑ वे॒दि॒ऽसत्। अति॑थिः। दु॒रो॒ण॒सदिति॑ दुरोण॒ऽसत्। नृ॒षत्। नृ॒सदिति॑ नृ॒ऽसत्। व॒र॒सदिति॑ वर॒ऽसत्। ऋ॒त॒सदित्यृ॑त॒ऽसत्। व्यो॒म॒सदिति॑ व्योम॒ऽसत्। अ॒ब्जा इत्य॒प्ऽजाः। गो॒जा इति॑ गो॒ऽजाः। ऋ॒त॒जा इत्यृ॑त॒ऽजाः। अ॒द्रि॒जा इत्य॑द्रि॒ऽजाः। ऋ॒तम्। बृ॒हत् ॥२४॥
स्वर रहित मन्त्र
हँसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजाऽऋतजाऽअद्रिजा ऋतम्बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
हꣳसः। शुचिषत्। शुचिसदिति शुचिऽसत्। वसुः। अन्तरिक्षसदित्यन्तरिक्षऽसत्। होता। वेदिषत्। वेदिसदिति वेदिऽसत्। अतिथिः। दुरोणसदिति दुरोणऽसत्। नृषत्। नृसदिति नृऽसत्। वरसदिति वरऽसत्। ऋतसदित्यृतऽसत्। व्योमसदिति व्योमऽसत्। अब्जा इत्यप्ऽजाः। गोजा इति गोऽजाः। ऋतजा इत्यृतऽजाः। अद्रिजा इत्यद्रिऽजाः। ऋतम्। बृहत्॥२४॥
विषय - हंसः
पदार्थ -
२२वें मन्त्र में अपने को प्रभु से अयुक्त न करने की भावना थी। जब हम सदा प्रभु का स्मरण करते हैं, प्रभु-स्मरण के साथ ही हमारी सब क्रियाएँ होती हैं तब वे प्रभु हमारे लिए १. ( हंसः ) = [ हन्ति पापानाम् ] सब पापों को नष्ट करनेवाले होते हैं। पापों के नाश से हमारा जीवन ( शुचि ) = पवित्र होता है और वे प्रभु ( शुचिषत् ) = हमारे पवित्र हृदयों में निवास करनेवाले होते हैं।
२. जब मैं अपने हृदय में प्रभु के निवास को अनुभव करता हूँ तब ( वसुः ) = [ वासयति ] वे प्रभु मेरे जीवन को उत्तम बना देते हैं। उत्तम जीवन वही है जो सीमाओं को छोड़कर सदा मध्य-मार्ग का अवलम्बन करता है। ( अन्तरिक्षसत् ) = प्रभु का निवास उसी में है जो ‘अन्तराक्षि’ = मध्य में गति करता है [ क्षि = गति ]। योग इसी मध्य मार्ग पर चलनेवाले का कल्याण करता है। सितार के तार को अधिक कसा जाए तो वह टूट जाता है, ढीला छोड़ दिया जाए तो स्वर ही नहीं निकलता। न बहुत कसा जाए और न बहुत ढीला छोड़ा जाए तभी मधुर स्वर निकलता है। इस मध्य मार्ग में रहने व चलनेवाले में प्रभु का निवास है।
३. ( होता ) = वे प्रभु ही सब-कुछ देनेवाले हैं और ( वेदिषत् ) = जो व्यक्ति अपने इस शरीर को यज्ञवेदी बना देता है उसी में प्रभु का निवास होता है। सब-कुछ देनेवाले वे प्रभु हैं तो हमें लोभ करना ही क्यों? लोभ को छोड़कर हम यज्ञवृत्ति को अपनाएँ और प्रभु के निवास-स्थान बनें।
४. ( अतिथिः ) = वे प्रभु तो ‘अत् सातत्यगमने’ = हमें निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं। ( दुरोणसत् ) = [ दुर = बुराई ओणृं अपनयने ] बुराई को दूर करनेवाले में बैठनेवाले हैं। ‘दुरोण’ शब्द गृहवाची है, क्योंकि यह हमें सर्दी-गर्मी, वर्षा-ओले आदि से बचाता है। इसी प्रकार अपने को वासनाओं से बचानेवाला व्यक्ति भी ‘दुरोण’ है।
५. ( नृषत् ) = वह प्रभु ‘नृषु सीदति’ = अपने को आगे ले-चलनेवालों में निषण्ण होता है।
६. ( वरसत् ) = वह प्रभु श्रेष्ठ व्यक्तियों में आसीन होते हैं ७. ( ऋतसत् ) = जो भी ऋत का पालन करते हैं वे प्रभु का निवास-स्थान बनते हैं।
८. ( व्योमसत् ) = वे प्रभु उस व्यक्ति में निवास करते हैं जो कि वी+ओम् = [ वी गति, अव रक्षणे ] सदा क्रियाशीलता के द्वारा अपना बचाव करता है। क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप शुद्ध बना रहता है।
९. ( अब्जाः ) = [ अप्सु जायते ] वे प्रभु जलों में प्रकट होते हैं। ‘यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः’ ये हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र व पृथिवी उस प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहे हैं।
१०. ( गोजाः ) = [ गवि जायते ] वे प्रभु इस पृथिवी के अनन्त विस्तृत मैदानों, वनों व पर्वतों में प्रकट होते हैं, उन स्थानों पर उस प्रभु की महिमा दिखती है।
११. ( ऋतजाः ) = वे सूर्य, चन्द्र, तारे व अन्य लोक-लोकान्तरों की नियमित गति में प्रकट होते हैं।
१२. ( अद्रिजाः ) = गगनचुम्बी घाटियोंवाले, ध्रुवता से स्थित [ अविदारणीय ] पर्वतों में वे प्रभु प्रकट होते हैं।
१३. वे प्रभु ( ऋतम् ) = सत्य हैं, ( बृहत् ) = सदा वर्धमान हैं [ वर्धमानं स्वे दमे ]।
भावार्थ -
भावार्थ — हम इस सृष्टि में प्रभु की महिमा को देखें। जीवन को पवित्र बनाकर प्रभु के निवास-स्थान बनें। हम अनुभव करें कि वे प्रभु सत्य हैं, वे सदा वृद्ध हैं। इस प्रकार जीवन बनाते हुए हम ‘वामदेव’ सुन्दर दिव्य गुणोंवाले हों।
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