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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 26
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - भूरिक अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    स्यो॒नासि॑ सु॒षदा॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि। स्यो॒नामासी॑द सु॒षदा॒मासी॑द क्ष॒त्रस्य॒ योनि॒मासी॑द॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्यो॒ना। अ॒सि॒। सु॒षदा॑। सु॒सदेति॑ सु॒ऽसदा॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनिः॑। अ॒सि॒। स्यो॒नाम्। आ। सी॒द॒। सु॒षदा॑म्। सु॒सदा॒मिति॑ सु॒ऽसदा॑म्। आ। सी॒द॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनि॑म्। आ। सी॒द॒ ॥२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्योनासि सुषदासि क्षत्रस्य योनिरसि स्योनामासीद सुषदामासीद क्षत्रस्य योनिमासीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्योना। असि। सुषदा। सुसदेति सुऽसदा। असि। क्षत्रस्य। योनिः। असि। स्योनाम्। आ। सीद। सुषदाम्। सुसदामिति सुऽसदाम्। आ। सीद। क्षत्रस्य। योनिम्। आ। सीद॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 26
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र की भावना के अनुसार प्रभु-स्मरण से शक्ति-सम्पन्न बनकर निरन्तर क्रिया करनेवाला व्यक्ति इस पृथिवी को बड़ा सुन्दर बनाता है। मन्त्र में कहते हैं कि १. हे पृथिवि! तू ( स्योना असि ) = सुखरूप है। प्रयत्नशील व्यक्ति के लिए पृथिवी सुखरूप है ही। 

    २. ( सु-सदा असि ) = सुख से बैठने के योग्य है [ सुखेन सीदन्ति यस्याम् ]। श्रमशील लोग तेरे आश्रय से जीवन व्यतीत करते हैं। 

    ३. ( क्षत्रस्य योनिः असि ) = क्रियाशीलता के द्वारा बल का तू कारण है। इस पृथिवी पर निवास करते हुए हम यदि क्रियाशील बनते हैं तो शक्ति-सम्पन्न भी होते हैं। क्रियाशीलता व शक्ति आनुपातिक हैं। 

    ४. वामदेव से कहते हैं कि हे वामदेव! तू ( स्योनाम् ) = इस सुखरूप पृथिवी पर ( आसीद ) = आसीन हो। ( सु-षदाम् आसीद ) = सुख से बैठने योग्य इस पृथिवी पर आसीन हो। ( क्षत्रस्य योनिम् ) = बल की कारणभूत इस पृथिवी पर ( आसीद ) = आसीन हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — यह पृथिवी सुखरूप है, सुख से बैठने योग्य है, शक्ति का स्रोत है। निरन्तर क्रियाशीलता के द्वारा ‘वामदेव’ पृथिवी को ऐसा ही बना लेता है।

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