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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 15
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - गणपतिर्देवता छन्दः - आर्षी स्वरः - निषादः
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    प्र॒तूर्व॒न्नेह्य॑व॒क्राम॒न्नश॑स्ती रु॒द्रस्य॒ गाण॑पत्यं मयो॒भूरेहि॑। उ॒र्वन्तरि॑क्षं॒ वीहि स्व॒स्तिग॑व्यूति॒रभ॑यानि कृ॒ण्वन् पू॒ष्णा स॒युजा॑ स॒ह॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒तूर्व॒न्निति॑ प्र॒ऽतूर्व॑न्। आ। इ॒हि॒। अ॒व॒क्राम॒न्नित्य॑व॒ऽक्राम॑न्। अश॑स्तीः। रु॒द्रस्य॑। गाण॑पत्य॒मिति॒ गाण॑ऽपत्यम्। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। आ। इ॒हि॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। वि। इ॒हि॒। स्व॒स्तिग॑व्यूति॒रिति॑ स्व॒स्तिऽग॑व्यूतिः। अभ॑यानि। कृ॒ण्वन्। पू॒ष्णा। स॒युजेति॑ स॒ऽयुजा॑। स॒ह ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतूर्वन्नेह्यवक्रामन्नशस्तो रुद्रस्य गाणपत्यम्मयोभूरेहि । उर्वन्तरिक्षँवीहि स्वस्तिगव्यूतिरभयानि कृण्वन्पूष्णा सयुजा सह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतूर्वन्निति प्रऽतूर्वन्। आ। इहि। अवक्रामन्नित्यवऽक्रामन्। अशस्तीः। रुद्रस्य। गाणपत्यमिति गाणऽपत्यम्। मयोभूरिति मयःऽभूः। आ। इहि। उरु। अन्तरिक्षम्। वि। इहि। स्वस्तिगव्यूतिरिति स्वस्तिऽगव्यूतिः। अभयानि। कृण्वन्। पूष्णा। सयुजेति सऽयुजा। सह॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र के अनुसार प्रत्येक संग्राम के अवसर पर प्रभु को पुकारते हुए ( अशस्तीः ) = सब अशुभ—अशंसनीय बातों को ( अवक्रामन् ) [ क्रमु पादविक्षेपे ] = पाँवो तले कुचलते हुए ( प्रतूर्वन् ) = आसुरवृत्तियों को प्रकर्षेण हिंसित करते हुए ( एहि ) = तू गति कर। मनुष्य के लिए यही उचित है कि अशुभ कर्मों को कुचल डाले। 

    २. इस प्रकार करता हुआ ( मयोभूः ) = कल्याण का भावन करनेवाला तू ( रुद्रस्य ) = [ रुत्+र ] ज्ञान का उपदेश देनेवाले रुद्र के ( गाणपत्यम् ) =  गणपतित्व को ( एहि ) = प्राप्त हो। जो भी व्यक्ति अशुभ बातों को अपने जीवन में नहीं आने देते और परिणामतः कल्याण का भावन करते हैं वे प्रभु के गण कहलाते हैं, इस गण के मुख्य स्थान में होना ही ‘गाणपत्य’ की प्राप्ति है। 

    ३. इस गाणपत्य से प्रभु कहते हैं कि ( उरु अन्तरिक्षं वीहि ) = तू विशाल हृदयान्तरिक्ष को प्राप्त कर। तेरा हृदय विशाल हो। तू संकुचित हृदय न बन। 

    ४. ( स्वस्तिगव्यूतिः ) = कल्याण के मार्गवाला हो [ गव्यूतिः = मार्गः ]। तू कभी अशुभ मार्ग पर चलनेवाला न हो। तेरे इन्द्रियरूप घोड़ों की चरागाह कल्याण-ही-कल्याण को देनेवाली हो। तेरी इन्द्रियाँ अशुभ मार्ग पर जानेवाली न हों। 

    ५. अशुभ मार्ग पर न जाकर ( अभयानि कृण्वन् ) = तू अपने जीवन को निर्भय बनानेवाला हो। पाप में ही तो भय है। न पाप हो, न भय हो। 

    ६. ( सयुजा पूष्णा सह ) = तू सदा अपने साथ रहनेवाले मित्र और पोषण करनेवाले प्रभु के साथ रहनेवाला बन। प्रभु के साथ रहना ही निर्भयता का मार्ग है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम अशुभ का विनाश करें। उस रुद्र के गण के पति बनें। विशाल हृदयवाले, शुभ-मार्गवाले, निर्भय तथा सदा प्रभु के सयुज् सखा बनें।

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