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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यु॒क्त्वाय॑ सवि॒ता दे॒वान्त्स्व॑र्य॒तो धि॒या दिव॑म्। बृ॒हज्ज्योतिः॑ करिष्य॒तः स॑वि॒ता प्रसु॑वाति॒ तान्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्त्वाय॑। स॒वि॒ता। दे॒वान्। स्वः॑। य॒तः। धि॒या। दिव॑म्। बृ॒हत्। ज्योतिः॑। क॒रि॒ष्य॒तः। स॒वि॒ता। प्र। सु॒वा॒ति॒। तान् ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्यतो धिया दिवम् । बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्र सुवाति तान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युक्त्वाय। सविता। देवान्। स्वः। यतः। धिया। दिवम्। बृहत्। ज्योतिः। करिष्यतः। सविता। प्र। सुवाति। तान्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र का ( सविता ) = मन, बुद्धि व इन्द्रियों को उत्तम प्ररेणा देनेवाला योगी ‘स्वर्ग्याय शक्त्या’ शक्ति के अनुसार स्वर्ग-साधक कर्मों को करनेवाला है। यह ( स्वर् यतः ) = यज्ञादि उत्तम कर्मों से स्वर्ग की ओर जानेवाली ( देवान् ) = इन इन्द्रियों को ( युक्त्वाय ) =  मनो-निरोध के द्वारा आत्मतत्त्व की ओर लगाकर ( धिया ) = बुद्धि व प्रज्ञानों से ( दिवम् ) = प्रकाशमय ( बृहत् ) = वृद्धि की कारणभूत ( ज्योतिः ) = ज्ञान की ज्योति परमात्मा को ( करिष्यतः ) = आत्मीय करता है। इस प्रकार ( सविता ) = यह आत्म-प्रेरणा देनेवाला योगी ( तान् देवान् ) = उन प्रकाशक इन्द्रियों को ( प्रसुवाति ) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराता है।

    संक्षेप में, १. सविता—इन्द्रियों को उत्तम प्रेरणा देनेवाला योगी इन्द्रियों को बहिमुर्खता से हटाकर अन्तर्मुखता की ओर ले-चलता है—यही इन्द्रियों का युक्त करना है २. यज्ञादि कर्मों से यह उन्हें स्वर्ग की ओर जानेवाला बनाता है ३. बुद्धि के द्वारा उस ‘प्रकाशमय बृहत् ज्योतिः’ अर्थात् परमात्मा को अपनानेवाला होता है। 

    ४. यह इन्द्रियों को सदा उत्तम प्रेरणा देता रहता है। ‘हे आँख! तूने भद्र ही देखना है। हे कान! तूने भद्र ही सुनना है।’ इस प्रकार यह इन्द्रियों को सचमुच ‘देव’ बना डालता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — इन्द्रिय-संयम-यज्ञ को करते हुए हम स्वर्ग साधक-कर्मों को ही करें। ज्ञान प्राप्त करें। परमात्म-दर्शन के लिए प्रयत्नशील हों। इन्द्रियों को सदा उत्तम प्रेरणा दें।

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