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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 39
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - विराट् स्वरः - धैवतः
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    सं ते॑ वा॒युर्मा॑त॒रिश्वा॑ दधातूत्ता॒नाया॒ हृद॑यं॒ यद्विक॑स्तम्। यो दे॒वानां॒ चर॑सि प्रा॒णथे॑न॒ कस्मै॑ देव॒ वष॑डस्तु॒ तुभ्य॑म्॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। ते॒। वा॒युः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒तु॒। उ॒त्ता॒नायाः॑। हृद॑यम्। यत्। विक॑स्त॒मिति॒ विऽक॑स्तम्। यः। दे॒वाना॑म्। चर॑सि। प्रा॒णथे॑न। कस्मै॑। दे॒व॒। वष॑ट्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म् ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाया हृदयँयद्विकस्तम् । यो देवानाञ्चरसि प्राणथेन कस्मै देव वषडस्तु तुभ्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। ते। वायुः। मातरिश्वा। दधातु। उत्तानायाः। हृदयम्। यत्। विकस्तमिति विऽकस्तम्। यः। देवानाम्। चरसि। प्राणथेन। कस्मै। देव। वषट्। अस्तु। तुभ्यम्॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 39
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    पदार्थ -

    १. घर में पति-पत्नी दो ही मुख्य प्राणी हैं। इनमें पत्नी के लिए कहते हैं कि ( उत्तानायाः ) = [ उत् तन् ] उत्कृष्ट गुणों के विस्तार करनेवाली ( ते ) = तेरे लिए ( मातरिश्वा वायुः ) =  यह अन्तरिक्ष में सञ्चरण करनेवाला वायु, प्राणायाम के समय हृदयान्तरिक्ष में विचरनेवाला प्राणवायु ( हृदयम् ) = उस हृदय को ( सन्दधातु ) = उत्तमता से धारण करे ( यत् ) = जो ( विकस्तम् ) = विकासवाला है। प्राणायाम के द्वारा शरीर में शुद्ध वायु को बारम्बार गहराई तक पहुँचाने से मलों का भस्मीकरण होकर नीरोगता उत्पन्न होती है और मन में द्वेषादि मल भी नहीं रहते। इस प्रकार मलों का विनाश होकर हृदय में गुणों का उत्तमता से विकास होता है। 

    २. पत्नी की भाँति पति भी समतावाला होकर प्राणायाम द्वारा निर्मल बनकर ऐसा हो जाता है कि ( यः ) = जो ( देवानां प्राणथेन ) = देवों के जीवन से ( चरसि ) = विचरता है। पति का जीवन ऐसी भद्रतावाला हो जाता है कि लोग कहते हैं कि यह तो दिव्य जीवनवाला हो गया है। 

    ३. इस पति-पत्नी का यह पवित्र जीवन हे ( देव ) = सब दिव्य गुणों के स्रोत प्रभो! ( कस्मै ) = आनन्दस्वरूप ( तुभ्यम् ) = आपके लिए ( वषट् अस्तु ) = अर्पित हो। इस वायु के द्वारा अपने जीवनों को शुद्ध बनाकर ये पति-पत्नी तेरे प्रति समर्पण करनेवाले बनते हैं। प्रभु-चरणों में पवित्र वस्तु का ही तो अर्पण समुचित है। 

    भावार्थ -

    भावार्थ — शुद्ध वायु में प्राणायाम के द्वारा अपने हृदय का विकास करके तथा अपने जीवन को दिव्य बनाकर हम इन्हें प्रभु-चरणों में अर्पित करनेवाले बनें।

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