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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 44
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स्थि॒रो भ॑व वी॒ड्वङ्गऽआ॒शुर्भ॑व वा॒ज्यर्वन्। पृ॒थुर्भ॑व सु॒षद॒स्त्वम॒ग्नेः पु॑रीष॒वाह॑णः॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्थि॒रः। भ॒व॒। वी॒ड्व᳖ङ्ग॒ इति॑ वी॒डुऽअ॑ङ्गः। आ॒शुः। भ॒व॒। वा॒जी। अ॒र्व॒न्। पृ॒थुः। भ॒व॒। सु॒षदः॑। सु॒सद॒ इति॑ सु॒ऽसदः॑। त्वम्। अ॒ग्नेः। पु॒री॒ष॒वाह॑णः। पु॒री॒ष॒वाह॑न॒ इति॑ पुरीष॒ऽवाह॑नः ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुर्भव वाज्यर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमग्नेः पुरीषवाहणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्थिरः। भव। वीड्वङ्ग इति वीडुऽअङ्गः। आशुः। भव। वाजी। अर्वन्। पृथुः। भव। सुषदः। सुसद इति सुऽसदः। त्वम्। अग्नेः। पुरीषवाहणः। पुरीषवाहन इति पुरीषऽवाहनः॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र का अन्तिम वाक्य था ‘मपी-तुली क्रियावाले को प्रभु ज्ञानोपदेश देते हैं’। प्रस्तुत मन्त्र में वही उपदेश निर्दिष्ट हुआ है। उपदेश यह है— १. ( स्थिरो भव ) = तू स्थिर हो— चञ्चलता को छोड़ दे, प्रतिक्षण इधर-उधर भागा न फिर। 

    २. ( वीड्वङ्गः ) = दृढ़ अङ्गोंवाला हो। व्यर्थ की चञ्चलताओं को छोड़कर तू शान्त-वृत्तिवाला बन और अपनी शक्ति को नष्ट न होने देते हुए दृढ़ व पुष्ट अङ्गोंवाला हो। 

    ३. ( आशुःभव ) = कर्मों में सदा व्याप्तिवाला हो अथवा आलस्य को छोड़कर शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला बन। ( वाजी ) = शक्तिशाली हो। ( अर्वन् ) = [ अर्व हिंसायाम् ] मार्ग में आनेवाले विघ्नों को तू नष्ट करनेवाला हो। विघ्नों से न घबराता हुआ तू शक्ति-सम्पन्नता से कार्यों को शीघ्रता से पूर्ण करनेवाला हो। 

    ४. ( पृथुर्भव ) = तू विशाल हृदयवाला हो। ( सुषदः ) = उत्तमता से इस घर में बैठनेवाला हो अथवा सदा उत्तम कार्यों में स्थित हो। 

    ५. इस प्रकार ( त्वम् ) = तू ( अग्नेः ) = एक अग्रणी नेता के ( पुरीषवाहणः ) = पालन-पूरणादि उत्तम कर्मों को वहन करनेवाला होता है, अर्थात् अग्रणी बनकर तू इस प्रकार कार्य करता है कि सभी का पालन हो और उनकी कमियाँ दूर होकर वे पूरण हो पाएँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम अचञ्चलता, दृढ़ाङ्गता, कार्यव्याप्तता, शक्तिमत्ता = विघ्नों का दूरीकरण— हृदय की विशालता, उत्तम कार्यों में स्थिति तथा नेता के पालनात्मक गुणों को धारण करनेवाले बनें।

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