यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 61
ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः
देवता - आदित्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः
छन्दः - भुरिक्कृतिः, निचृत् प्रकृतिः
स्वरः - निषादः, धैवतः
3
अदि॑तिष्ट्वा दे॒वी वि॒श्वदे॑व्यावती पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् ख॑नत्ववट दे॒वानां॑ त्वा॒ पत्नी॑र्दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वद् द॑धतूखे धि॒षणा॑स्त्वा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वद॒भीन्धतामुखे॒ वरू॑त्रीष्ट्वा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वच्छ्र॑पयन्तूखे॒ ग्नास्त्वा॑ दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् प॑चन्तूखे॒ जन॑य॒स्त्वाऽछि॑न्नपत्रा दे॒वीर्वि॒श्वदे॑व्यावतीः पृथि॒व्याः स॒धस्थे॑ऽअङ्गिर॒स्वत् प॑चन्तूखे॥६१॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑तिः। त्वा॒। दे॒वी। वि॒श्वदे॑व्यावती। वि॒श्वदे॑व्यव॒तीति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवती। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒न॒तु॒। अ॒व॒ट॒। दे॒वाना॑म्। त्वा॒। पत्नीः॑। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। द॒ध॒तु॒। उ॒खे॒। धि॒षणाः॑। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। अ॒भि। इ॒न्ध॒ता॒म्। उ॒खे॒। वरू॑त्रीः। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। श्र॒प॒य॒न्तु॒। उ॒खे॒। ग्नाः। त्वा॒। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। प॒च॒न्तु॒। उ॒खे॒। जन॑यः। त्वा॒। अच्छि॑न्नपत्रा॒ इत्यच्छि॑न्नऽपत्राः। दे॒वीः। वि॒श्वदे॑व्यावतीः। वि॒श्वदे॑व्यवती॒रिति॑ वि॒श्वदे॑व्यऽवतीः। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। प॒च॒न्तु॒। उ॒खे॒ ॥६१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदितिष्ट्वा देवी विश्वदेव्यावती पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वत्खनत्ववट देवानाम्त्वा पत्नीर्देवीर्विश्वदेव्यावतीः पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वद्दधतूखे धिषणास्त्वा देवीर्विश्वदेव्यावतीः पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वदभीन्धतामुखे वरूत्रीष्ट्वा देवीर्विश्वदेव्यावतीः पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वच्छ्रपयन्तूखे ग्नास्त्वा देवीर्विश्वदेव्यावतीः पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वत्पचन्तूखे जनयस्त्वाच्छिन्नपत्रा देवीर्विश्वदेव्यावतीः पृथिव्याः सधस्थेऽअङ्गिरस्वत्पचन्तूखे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अदितिः। त्वा। देवी। विश्वदेव्यावती। विश्वदेव्यवतीति विश्वदेव्यऽवती। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत्। खनतु। अवट। देवानाम्। त्वा। पत्नीः। देवीः। विश्वदेव्यावतीः। विश्वदेव्यवतीरिति विश्वदेव्यऽवतीः। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत्। दधतु। उखे। धिषणाः। त्वा। देवीः। विश्वदेव्यावतीः। विश्वदेव्यवतीरिति विश्वदेव्यऽवतीः। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत्। अभि। इन्धताम्। उखे। वरूत्रीः। त्वा। देवीः। विश्वदेव्यावतीः। विश्वदेव्यवतीरिति विश्वदेव्यऽवतीः। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत्। श्रपयन्तु। उखे। ग्नाः। त्वा। देवीः। विश्वदेव्यावतीः। विश्वदेव्यवतीरिति विश्वदेव्यऽवतीः। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत। पचन्तु। उखे। जनयः। त्वा। अच्छिन्नपत्रा इत्याच्िछन्नऽपत्राः। देवीः। विश्वदेव्यावतीः। विश्वदेव्यवतीरिति विश्वदेव्यऽवतीः। पृथिव्याः। सधस्थ इति सधऽस्थे। अङ्गिरस्वत्। पचन्तु। उखे॥६१॥
विषय - प्रभु-दर्शन किसे ?
पदार्थ -
१. हे ( अवट ) = [ वट परिभाषणे ] अपरिभाषित, अनिन्दित [ Parliamentary भाषा में named = परिभाषित ] पूर्ण प्रशस्त प्रभो! ( त्वा ) = आपको ( अदितिः ) = अदीना देवमाता ( देवी ) = दिव्य गुणोंवाली ( विश्वदेव्यावती ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली ( पृथिव्याः ) = इस विशाल हृदयाकाश के ( सधस्थे ) = एकत्र स्थित होने के स्थान में ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( खनतु ) = खोजे। ‘अङ्गिरस्’ हृदयदेश में प्रभु का दर्शन करता है, इसी प्रकार यह अदीन बनकर, दिव्य गुणों के निर्माण व रक्षणवाली बनकर उस प्रभु को देखती है। २. ( उखे ) = [ उत्खन्यते इति उत्खा = उखा, परोक्षप्रियत्वात् देवानाम् ] अन्नमयादि कोशों को उखाड़ते-उखाड़ते अन्त में आनन्दमयकोश में दिखने योग्य प्रभो! ( त्वा ) = आपको ( देवानां पत्नी ) = देवों की पत्नियाँ, ( देवीः ) = प्रकाशमय जीवनवाली ( विश्वदेव्यावतीः ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ ( पृथिव्याः सधस्थे ) = विशाल हृदयदेश के एकत्र स्थित होने के स्थान में ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( दधतु ) = धारण करें। ३. हे ( उखे ) = एक-एक कोश को खोजते-खोजते अन्त में आनन्दमयकोश में दिखनेवाले प्रभो! ( त्वा ) = तुझे ( धिषणाः ) = बुद्धि की पुञ्जभूत ( देवीः ) = प्रकाशमय जीवनवाली ( विश्वदेव्यावतीः ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ, ( पृथिव्याः सधस्थे ) = विशाल हृदयाकाश के एकत्र स्थित होने के स्थान में ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( अभीन्धताम् ) = दीप्त करें। ४. हे ( उखे ) = प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठकर [ उत् ] खोजने योग्य [ खन् ] प्रभो! ( त्वा ) = आपको ( वरूत्रीः ) = द्वेषादि का निवारण करनेवाली और इस प्रकार ( देवीः ) = प्रकाशमय जीवनवाली ( विश्व-देव्यावतीः ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( श्रपयन्तु ) = परिपाक करें। अपने हृदय में तेरी ही भावना को दृढ़मूल करें। ५. ( उखे ) = हे भोगों से ऊपर उठकर खोजने योग्य प्रभो! ( त्वा ) = आपको ( ग्नाः ) = छन्दों का अध्ययन करनेवाली देवपत्नियाँ ( देवीः ) = प्रकाशमय जीवनवाली ( विश्वदेव्यावतीः ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली ( पृथिव्याः ) = विशाल हृदयान्तरिक्ष के ( सधस्थे ) = एकत्र स्थित होने के स्थान में ( पचन्तु ) = विकसित [ Develop ] करती हैं, अर्थात् उस प्रभु के प्रकाश को अधिकाधिक देखती हैं और ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति बनने का प्रयत्न करती हैं। ६. हे ( उखे ) = आत्मन्! ( त्वा ) = आपको ( जनयः ) = उत्तम माता बननेवाली ( अछिन्नपत्राः ) = अविछिन्न गतिवाली [ पत् गतौ ] अर्थात् निरन्तर क्रियाशील ( देवीः ) = प्रकाशमय जीवनवाली ( विश्वदेव्यावतीः ) = सब दिव्यताओं की रक्षा करनेवाली ( पृथिव्याः सधस्थे ) = इस विस्तृत हृदयान्तरिक्ष के सहस्थान में ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( पचन्तु ) = विकसित करें।
भावार्थ -
भावार्थ — १. प्रभु ‘अवट’ = अनिन्दित व ‘उखा’ = भोगों से ऊपर उठकर देखने योग्य हैं। २. प्रभु-दर्शन करनेवाला अङ्गिरस् = एक-एक अङ्ग में रस के सञ्चारवाला बनता है। ३. प्रभु-दर्शन विशाल हृदयान्तरिक्ष में होता है। ४. प्रभु-दर्शन ‘अदिति, देवपत्नी, धिषणा, वरूत्री, ग्ना, आच्छिन्नपत्रा, जनयः तथा देवी विश्वदेव्यावती’ को होता है। अदीना देवमाता, देवपत्नी, बुद्धिमती, द्वेष से शून्य, छन्दोमय जीवनवाली, निरन्तर क्रियाशील उत्तम माता—प्रकाशमय जीवनवाली, दिव्यताओं की रक्षिका ही प्रभु-दर्शन के योग्य है।
टिप्पणी -
सूचना — यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रभु-दर्शन के प्रसङ्ग में दर्शक के सब नाम स्त्रीलिङ्ग में हैं। सम्भवतः प्रभु पति हैं और उनका दर्शन करनेवाला जीव पत्नी है।
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