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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 69
    ऋषिः - आत्रेय ऋषिः देवता - अम्बा देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दृꣳह॑स्व देवि पृथिवि स्व॒स्तय॑ऽआसु॒री मा॒या स्व॒धया॑ कृ॒तासि॑। जुष्टं॑ दे॒वेभ्य॑ऽइ॒दम॑स्तु ह॒व्यमरि॑ष्टा॒ त्वमुदि॑हि य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्॥६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृꣳह॑स्व। दे॒वि॒। पृ॒थि॒वि॒। स्व॒स्तये॑। आ॒सु॒री। मा॒या। स्व॒धया॑। कृ॒ता। अ॒सि॒। जुष्ट॑म्। दे॒वेभ्यः॑। इ॒दम्। अ॒स्तु॒। ह॒व्यम्। अरि॑ष्टा। त्वम्। उत्। इ॒हि॒। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन् ॥६९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृँहस्व देवि पृथिवि स्वस्तयऽआसुरी माया स्वधया कृतासि । जुष्टन्देवेभ्यऽइदमस्तु हव्यमरिष्टा त्वमुदिहि यज्ञे अस्मिन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दृꣳहस्व। देवि। पृथिवि। स्वस्तये। आसुरी। माया। स्वधया। कृता। असि। जुष्टम्। देवेभ्यः। इदम्। अस्तु। हव्यम्। अरिष्टा। त्वम्। उत्। इहि। यज्ञे। अस्मिन्॥६९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 69
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    पदार्थ -

    १. हे ( देवि ) = दिव्य गुणोंवाली! ( पृथिवि ) = विशाल हृदयान्तरिक्षवाली! तू ( दृंहस्व ) = दृढ़ बन। घर में स्थिरता से रहनेवाली बन और ( स्वस्तये ) = घर की उत्तम स्थिति के लिए हो। जब पत्नी घर में दृढ़तापूर्वक नहीं रहती तो वह घर को उत्तम कभी नहीं बना पाती। २. तू ( आसुरी ) = [ असु = प्राण ] प्राणसम्बन्धिनी ( माया ) = प्रज्ञा ( असि ) = है, अर्थात् तू इतनी समझदार है कि अपनी पाचन-क्रिया से सिद्ध भोजन के द्वारा सभी के प्राणों का पोषण करनेवाली है। ३. ( स्वधया ) = अन्न के हेतु से ( कृता असि ) = तू [ कृती कुशलः ] बड़ी कुशल है, अन्न-पाचन में तू पूरी निपुण है। ४. ( इदम् ) = यह तुझसे पकाया हुआ ( हव्यम् ) = दानपूर्वक खाने योग्य अन्न ( देवेभ्यः ) = अग्न्यादि देवों से ( जुष्टम् ) = प्रीतिपूर्वक सेवित ( अस्तु ) = हो, अर्थात् अग्नि में आहुति देने के बाद हम सिद्ध अन्न का सेवन करनेवाले हों। अग्निमुख से वह अन्न देवों में पहुँचे और फिर यज्ञशेषरूप अमृत का हम सेवन करनेवाले हों। ५. ( अरिष्टा त्वम् ) = अहिंसित होती हुई तू ( अस्मिन् यज्ञे ) = इस गृहस्थ यज्ञ में ( उदिहि ) = उन्नति को प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — १. पत्नी को गृह में स्थिर होकर रहना है। २. उसे ज्ञानपूर्वक भोजन बनाना है, जिससे सभी की प्राणशक्ति बढ़े। ३. अन्न-पाचन में वह कुशल हो। ४. यज्ञ करके यज्ञशेष ही सबको देनवाली हो। ५. इस यज्ञशेष के सेवन के परिणामरूप अहिंसित होती हुई यह गृहस्थ यज्ञ को खूब उन्नत करनेवाली हो।

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