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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 101
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - भिषजो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    त्वमु॑त्त॒मास्यो॑षधे॒ तव॑ वृ॒क्षाऽउप॑स्तयः। उप॑स्तिरस्तु॒ सोऽस्माकं॒ योऽअ॒स्माँ२ऽ अ॑भि॒दास॑ति॥१०१

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। उ॒त्त॒मेत्यु॑त्त॒मा। अ॒सि॒। ओ॒ष॒धे॒। तव॑। वृ॒क्षाः। उप॑स्तयः। उप॑स्तिः। अ॒स्तु॒। सः। अ॒स्माक॑म्। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒दास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति ॥१०१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमुत्तमास्योषधे तव वृक्षाऽउपस्तयः । उपस्तिरस्तु सो स्माकँयोऽअस्माँ अभिदासति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। उत्तमेत्युत्तमा। असि। ओषधे। तव। वृक्षाः। उपस्तयः। उपस्तिः। अस्तु। सः। अस्माकम्। यः। अस्मान्। अभिदासतीत्यभिऽदासति॥१०१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 101
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    पदार्थ -
    १. हे (ओषधे) = रोगदाहक औषध ! (त्वम्) = तू - (उत्तमा असि) = उस-उस रोग को नष्ट करने में सर्वोत्तम है। २. (वृक्षाः) = शाल-ताल-तमाल-वट आदि वृक्ष (तव) = तेरे (उपस्तयः) = समीप संहत होकर विद्यमान हैं। 'उपस्त्यायन्ति' वे वृक्ष तुम्हारे उपकार के लिए और उपद्रव के निराकरण के लिए समीप ही संहत होकर ठहरे हैं। ३. [क] इसी प्रकार (यः) = जो (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) =[दासतिः दानकर्मा-नि० ३।२०] उत्तमोत्तम पदार्थ देता है (सः) = वह पुरुष (अस्माकम्) = हमारा (उपस्तिः) = उपासन करनेवाला (अस्तु) = हो । जिस प्रकार ओषधि के समीप स्थित वृक्ष उसके लिए हितकर होते हैं, उसी प्रकार हमारे समीप स्थित व्यक्ति हमारे लिए हितकर हों। [ख] 'दासति' धातु हिंसा अर्थ में भी आती है तब अर्थ इस प्रकार होगा कि (यः) = जो (अस्मान् अभिदासति) = हमारी हिंसा करता है (सः) = वह हमारा विरोध छोड़कर (अस्माकम्) = हमारा (उपस्तिः अस्तु) = उपासक बन जाए। जो रोग हमें समाप्त कर रहा था, वह हमारे लिए कल्याणकर हो जाए।

    भावार्थ - भावार्थ - ओषधियाँ रोग निवारण करनेवाली हैं, परन्तु हमें विरोधी से कभी औषध नहीं लेनी चाहिए, हितचिन्तक से ही औषध का ग्रहण करें।

    - सूचना - यहाँ मन्त्र के उत्तरार्ध में ऐसा संकेत स्पष्ट है कि विरोधी व्यक्ति से ली गई औषध गुणकारी न होकर हमारी समाप्ति ही कर देगी। हम सदा औषध उसी वैद्य से लें जो हमारा उपासक व हितू हो।

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