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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 116
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    तुभ्यं॒ ताऽअ॑ङ्गिरस्तम॒ विश्वाः॑ सुक्षि॒तयः॒ पृथ॑क्। अग्ने॒ कामा॑य येमिरे॥११६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म्। ताः। अ॒ङ्गि॒र॒स्त॒मेत्य॑ङ्गिरःऽतम। विश्वाः॑। सु॒क्षि॒तय॒ इति॑ सुऽक्षि॒तयः॑। पृथ॑क्। अग्ने॑। कामा॑य। ये॒मि॒रे॒ ॥११६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यन्ता अङ्गिरस्तम विश्वाः सुक्षितयः पृथक् । अग्ने कामाय येमिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम्। ताः। अङ्गिरस्तमेत्यङ्गिरःऽतम। विश्वाः। सुक्षितय इति सुऽक्षितयः। पृथक्। अग्ने। कामाय। येमिरे॥११६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 116
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र का अवत्सार प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके विशिष्ट रूपवाला, ज्ञान- ज्योति से चमकते हुए चेहरेवाला - 'विरूप' बन जाता है। यह विरूप प्रभु की आराधना करते हुए कहता है कि हे (अङ्गिरस्तम) = अङ्ग अङ्ग में रस का सञ्चार करनेवालों में उत्तम प्रभो ! (ताः) = वे (विश्वाः) = सब (सुक्षितयः) = उत्तम निवास व गतिवाले मनुष्य (पृथक्) = संसार की इच्छाओं से अलग होकर (अग्ने तुभ्यं कामाय) = हे अग्रेणी प्रभो! आपकी ही कामना के लिए (येमिरे) = अपने जीवन को नियमित करते हैं। 'यम-नियम' से ही योग मार्ग का प्रारम्भ होता है। प्रभु के साथ मेल ' यम-नियम' के बिना सम्भव नहीं । २. जिस समय हम चित्तवृत्ति को सब विषयों में जाने से रोक लेते हैं, उसी समय हम अपने स्वरूप को देख पाते हैं और उसी समय हम परमात्म-दर्शन के अधिकारी बनते हैं। इस संसार में हम [क] 'सुक्षिति' - उत्तम निवास व उत्तम गतिवाले बनें [ख] (पृथक्) = संसार के विषयों से अपने को अलग करने के लिए प्रयत्नशील हों। [ग] प्रतिदिन प्रभु ध्यान व प्रभु- सम्पर्क द्वारा सब अङ्गों को रसमय बनाने का ध्यान रक्खें [अङ्गिरस्तम] । [घ] हममें प्रभु -प्राप्ति की प्रबल कामना हो [ तुभ्यं कामाय ] ।

    भावार्थ - भावार्थ- सज्जन लोग 'यम-नियमों' को अपनाकर प्रभु प्राप्ति के लिए अग्रसर होते हैं।

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