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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    विश्व॑स्य के॒तुर्भुव॑नस्य॒ गर्भ॒ऽआ रोद॑सीऽअपृणा॒ज्जाय॑मानः। वी॒डुं चि॒दद्रि॑मभिनत् परा॒यञ्जना॒ यद॒ग्निमय॑जन्त॒ पञ्च॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑स्य। के॒तुः। भुव॑नस्य। गर्भः॑। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। अ॒पृ॒णा॒त्। जाय॑मानः। वी॒डुम्। चि॒त्। अद्रि॑म्। अ॒भि॒न॒त्। प॒रा॒यन्निति॑ परा॒ऽयन्। जनाः॑। यत्। अ॒ग्निम्। अय॑जन्त। पञ्च॑ ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसी अपृणाज्जायमानः । वीडुञ्चिदद्रिमभिनत्परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वस्य। केतुः। भुवनस्य। गर्भः। आ। रोदसीऽइति रोदसी। अपृणात्। जायमानः। वीडुम्। चित्। अद्रिम्। अभिनत्। परायन्निति पराऽयन्। जनाः। यत्। अग्निम्। अयजन्त। पञ्च॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 23
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    पदार्थ -

    १. यह ( वत्सप्रीः ) = प्रभु को अपने कर्मों से प्रीणित करनेवाला व्यक्ति ( विश्वस्य ) = सबका ( केतुः ) = [ कित निवासे रोगापनयने च ] निवास देनेवाला तथा रोगों को दूर करनेवाला—ज्ञान के प्रकाश से सबको नीरोगता का मार्ग दिखानेवाला होता है। २. ( भुवनस्य गर्भः ) = भुवन का गर्भ बनता है, अर्थात् सारी वसुधा को अपना परिवार समझता है। ३. ( जायमानः ) = अपना विकास करता हुआ यह रोदसी—द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सभी को ( अपृणात् ) = पालित व पूरित करता है [ पॄ पालनपूरणयोः ] अथवा [ पृण to delight ] सभी के जीवन को आनन्दयुक्त करने का प्रयत्न करता है। ४. ( परायन् ) = इस संसार से दूर जाने के हेतु से [ हेतु में शतृ प्रत्यय है ], अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने के हेतु से ( वीडुम् अद्रिम् चित् ) = दृढ़ पर्वत को भी ( अभिनत् ) = विदीर्ण कर देता है, अर्थात् लोकहित के कार्यों में लगे होने पर मार्ग में आये बड़े-से-बड़े विघ्न को भी दूर कर देता है। सब विघ्नों को दूर करता हुआ यह आगे बढ़ता चलता है और अन्त में वह समय आता है कि ५. ( यत् ) = जब ( पञ्च जनाः ) = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद सभी लोग ( अग्निम् ) = इस अग्रेणी नेता को ( अयजन्त ) = पूजते हैं, आदर की दृष्टि से देखते हैं। सामान्यतः संसार में महापुरुषों का जीवनकाल में उतना आदर नहीं होता, परन्तु अन्त में वे लोगों के आदर-पात्र बनते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम अपने जीवन को प्रकाशमय बनाकर संसार को प्रकाश देनेवाले बनें और सभी को उत्तम निवासवाला व नीरोग बनाने का प्रयत्न करें।

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