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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 11
    ऋषिः - विश्वेदेवा ऋषयः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रा॑ग्नी॒ऽ अव्य॑थमाना॒मिष्ट॑कां दृꣳहतं यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्षं च॒ विबा॑धसे॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑ग्नी॒ इतीन्द्रा॑ग्नी। अव्य॑थमानाम्। इष्ट॑काम्। दृ॒ꣳह॒त॒म्। यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। वि। बा॒ध॒से॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नीऽअव्यथमानामिष्टकान्दृँहतँयुवम् । पृष्ठेन द्यावापृथिवी अन्तरिक्षञ्च विबाधसे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्नी इतीन्द्राग्नी। अव्यथमानाम्। इष्टकाम्। दृꣳहतम्। युवम्। पृष्ठेन। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। अन्तरिक्षम्। च। वि। बाधसे॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    १. प्रभु पति - पत्नी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि- ('इन्द्रः अग्निः च') = पति ने 'इन्द्र' बनना है- जितेन्द्रिय होना है तथा ऐश्वर्य को कमानेवाला बनना है, पत्नी ने 'अग्नि' बनकर घर को सदा आगे ले चलना है। घर की उन्नति का बहुत कुछ निर्भर पत्नी पर ही होता है। हे (इन्द्राग्नी) = जितेन्द्रिय पति व अग्नितुल्य पत्त्रि ! (युवम्) = तुम दोनों (अव्यथमानाम्) = [व्यथ् to change, to be disturbed] कभी विहत न होते हुए (इष्टकाम्) = यज्ञ को (दृंहतम्) = घर में दृढ़ करो। घर के अन्दर यज्ञ अविच्छिन्नरूप से अपने समय पर होता रहे। प्रातः का यज्ञ सायं तक, और सायं का यज्ञ प्रातः तक हम सबके मनों को सौमनस्य का देनेवाला हो। घर में यज्ञ के विच्छिन्न न होने से सन्तानों के चरित्र भी विच्छिन्न नहीं होते। २. घर के प्रत्येक व्यक्ति के लिए कहते हैं कि हे गृहजनो! तुम (पृष्ठेन) = ['तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि' ऐ० ६। ५] ब्रह्मवर्चस् के द्वारा (द्यावापृथिवी) = द्यावा मस्तिष्क को तेज के द्वारा पृथिवी- शरीर को, (च) = और (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को, श्री: [श्रीञ् सेवायाम् = भज्] भक्ति व सेवा के द्वारा (विबाधसे) = विगत बाधावाला करते हो, निर्बाध करते हो। तुम्हारा मस्तिष्क ब्रह्मवर्चस् से दीप्त होता है, शरीर तेज से और हृदयान्तरिक्ष श्री - भक्ति से देदीप्यमान हो उठता है।

    भावार्थ - भावार्थ- पति जितेन्द्रिय हो, पत्नी घर की उन्नति-साधिका हो। घरों में यज्ञ अविच्छिन्न रूप से चलें। मस्तिष्क ज्ञानमय, शरीर तेजस्वी व हृदय भक्ति-सम्पन्न हो । +

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