यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 12
ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः
देवता - वायुर्देवता
छन्दः - भुरिग्विकृतिः
स्वरः - मध्यमः
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वि॒श्वक॑र्मा त्वा सादयत्व॒न्तरि॑क्षस्य पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीम॒न्तरि॑क्षं यच्छा॒न्तरि॑क्षं दृꣳहा॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑ऽपा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। वा॒युष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥१२॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒न्तरि॑क्षस्य। पृ॒ष्ठे। व्यच॑स्वती॒मिति॒ व्यचः॑ऽवतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। य॒च्छ॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒ꣳह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। व्या॒नाय॑। उ॒दा॒नाय॑। प्रति॒ष्ठायै॑। च॒रित्रा॑य। वा॒युः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वकर्मा त्वा सादयत्वन्तरिक्षस्य पृष्ठे व्यचस्वतीम्प्रथस्वतीमन्तरिक्षँयच्छान्तरिक्षन्दृँहान्तरिक्षम्मा हिँसीः । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय । वायुष्ट्वाभिपातु मह्या स्वस्त्या च्छर्दिषा शन्तमेन तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद ॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। त्वा। सादयतु। अन्तरिक्षस्य। पृष्ठे। व्यचस्वतीमिति व्यचःऽवतीम्। प्रथस्वतीम्। अन्तरिक्षम्। यच्छ। अन्तरिक्षम्। दृꣳह। अन्तरिक्षम्। मा। हिꣳसीः। विश्वस्मै। प्राणाय। अपानाय। व्यानाय। उदानाय। प्रतिष्ठायै। चरित्राय। वायुः। त्वा। अभि। पातु। मह्या। स्वस्त्या। छर्दिषा। शन्तमेन। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद॥१२॥
विषय - मही-स्वस्ति-शन्तमछर्दि
पदार्थ -
१. पत्नी के लिए कहते हैं कि (विश्वकर्मा) = सब कर्मों को करनेवाला प्रभु (त्वा) = तुझे अन्तरिक्षस्य (पृष्ठे) = हृदयान्तरिक्ष की श्री में [पृष्ठ = श्री - ऐ० ६ । ५] (सादयतु) = स्थापित करे, अर्थात् तुझमें सेवा की भावना को जन्म दे [श्रिञ् सेवायाम्] । अथवा (विश्वकर्मा) = आजीविका के लिए सब धर्म्य कर्मों को करने के लिए सदा उद्यत पति तुझे सेवा की वृत्तिवाला बनाये। पति को गृह - भार को वहन करते हुए देखकर पत्नी में इस वृत्तिका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। 'ध्रुवैधि पोष्ये मयि' पोषण करनेवाले पति में पत्नी ध्रुव होकर रहेगी ही । २. तू (व्यचस्वतीम्) = [वि अञ्च्] वस्तुओं को व्यक्त करनेवाले ज्ञानवाली है तथा (प्रथस्वतीम्) = [ प्रथ विस्तारे ] हृदय के विस्तारवाली है। जहाँ तेरा ज्ञान ऊँचा है वहाँ तेरा हृदय भी विशाल है। ३. (अन्तरिक्षं यच्छ) = तू अपने मन को नियमित कर, मन को काबू करनेवाली हो। (अन्तरिक्षं बृंह) - इस मन को दृढ़ बना तथा (अन्तरिक्षं मा हिंसी:) = अपने मन को नष्ट न होने दे। 'मन के हारे हार है' ' - मन का उत्साह गया तो जीवन समाप्त हुआ, मन के उत्साह में ही सब उन्नति है । ४. इस प्रकार मन को नियमित, दृढ़ व जीवित बनाकर तू (प्राणाय) = प्राणशक्ति के लिए, (अपानाय) = दोषों को दूर करनेवाली अपानशक्ति के लिए, (व्यानाय) = सर्वशरीर व्यापी व्यानशक्ति के लिए और उसके द्वारा सारे नाड़ी संस्थान के स्वास्थ्य के लिए, (उदानाय) = कण्ठदेश में ठीक स्थिति को रखनेवाली उदानवायु के लिए, (प्रतिष्ठायै) = स्थिरता के लिए तथा (चरित्राय) = उत्तम आचरण के लिए, (विश्वस्मै) = इन सब बातों के लिए सन्नद्ध हो। ५. (वायुः) [वा गतौ ] = क्रियाशील पति (त्वा मह्या) = तुझे गौ के द्वारा [मही गोनाम - नि० २।११] (शन्तमेन छर्दिषा) = सब ऋतुओं में अधिक-से-अधिक शान्ति देनेवाले घर से (स्वस्त्या) = सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराने से अविनाश के द्वारा या उत्तम स्थिति के द्वारा (अभिपातु) = अन्दर व बाहर से सुरक्षित करे - इहलोक व परलोक के दृष्टिकोण से सुरक्षित करे । ६. (तया देवतया) = उस गौ, उत्तम घर व सम्पत्ति आदि को प्राप्त करानेवाले देवतुल्य पति के साथ (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रसवाली तू (ध्रुवा) = ध्रुव होकर (सीद) = इस गृह में बैठ। ६. जिस घर में गौ होगी वहाँ 'देवत्व - अङ्गिरसत्व व ध्रुवत्व' ये सभी बातें सम्भव होंगी। गोदुग्ध सेवन से मन सात्त्विक व दैवी सम्पत्तिवाला बनाता है-गोरस शीतवीर्य को जन्म देकर अङ्ग अङ्ग में रस का सञ्चार करनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- पत्नी हृदय में सेवा की वृत्तिवाली हो, ज्ञान के लिए विस्तारवाली, विशाल हृदयवाली हो। मन को दृढ़ व नियमित रक्खे। पति उत्तम गौ, उत्तम घर व समृद्धता का ध्यान करे।
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