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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 6
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - ग्रीष्मर्तुर्देवता छन्दः - निचृदुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
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    शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। ग्रैष्मा॑वृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒क्रः। च॒। शुचिः॑। च॒। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। ग्रैष्मौ॑। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तामापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे ग्रैष्मावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवाऽअभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शुक्रः। च। शुचिः। च। ग्रैष्मौ। ऋतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। इमेऽइतीमे। ग्रैष्मौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवे इति ध्रुवे। सीदतम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -
    १. पुरोहित वर-वधू को संकेत करता है कि - वर शुक्रः- (शुक गतौ) सदा क्रियाशील हो । पुरुषार्थ से धन कमानेवाला हो। उद्योग न करनेवाले गृहस्थ को तो समुद्र में डुबा देना चाहिए। २. पत्नी की ओर देखकर कहता है कि- (शुचिः) = वह बड़े पवित्र जीवनवाली हो । पति क्रियाशील है, पत्नी पवित्र जीवनवाली है तो वह घर स्वर्ग क्यों न बनेगा? यहाँ 'च' का प्रयोग अपि = 'भी' के अर्थ में आकर यह भाव प्रकट करता है कि पति गतिशील भी हो, अर्थात् पवित्र तो हो ही, गतिशील भी। इसी प्रकार पत्नी क्रियाशील तो हो ही, पवित्र भी। इस प्रकार दोनों में दोनों ही गुण अभीष्ट हैं। ३. क्रियाशीलता व पवित्रतावाले ये दोनों (ग्रैष्मौ) = ग्रीष्म के सन्तान हैं, इनमें प्राणशक्ति की गरमी है। ये उष्णिक उद्योगी हैं। (ऋतू) = ये ऋतुओं के समान व्यवस्थित गतिवाले हैं, सब कार्यों को समय पर करनेवाले हैं । ५. इनमें से एक एक (अग्ने:) = उस अग्नि नामक प्रभु को (अन्तः श्लेषः) = हृदय के अन्दर आलिङ्गन करनेवाला (असि) = है। ये हृदय में प्रभु का ध्यान करनेवाले हैं । ६. इस प्रकार इनके (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर दोनों (कल्पेताम्) = शक्तिशाली हों [कृपू सामर्थ्ये] । ७. इनके लिए (आपः ओषधयः) = जल व ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) = शक्ति देनेवाली हों। ये पानी पीएँ, वनस्पति खाएँ और अपने को सबल बनाएँ। ८. पति-पत्नी चाहते हैं कि (मम) = मेरे (ज्येष्ठ्याय) = ज्येष्ठतारूप- श्रेष्ठ कर्म के सम्पादन के लिए (सव्रता:) = समान व्रतवाले होकर, अर्थात् मेरी ज्येष्ठता को ही अपना लक्ष्य बनाकर (अग्नयः) = दक्षिणाग्निरूप माता, गार्हपत्याग्निरूप पिता तथा आहवनीयाग्निरूप आचार्य (पृथक्) = अलग-अलग -पाँच वर्ष तक माता, आठ वर्ष तक पिता तथा चौबीस वर्ष तक आचार्य (कल्पन्ताम्) = समर्थ हों। ये सब मिलकर हमें ज्येष्ठ बनानेवाले हों। ९. (इमे) = द्यावापृथिवी (अन्तरा) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक के बीच में ये (अग्नयः) = जो माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ हैं, वे (समनसः) = समान मनवाले हों, उन सबकी यह समान कामना हो कि हमें इन भावी नागरिकों को उत्तम बनाना है। १०. तुम दोनों पति-पत्नी (ग्रैष्मौ) = गरमी व उत्साहवाले बनो, ऋतू नियमित गतिवाले होके (अभिकल्पमाना) = शरीर व अध्यात्म बल का सम्पादन करनेवाले बनो। ११. (इन्द्रमिव) = सब इन्द्रियों को जीतकर इन्द्र के समान बने हुए तुझे देवा: - सब दिव्य गुण (अभिसंविशन्तु) प्राप्त हों। १२. (तया देवतया) = उस प्रसिद्ध देवता परमात्मा के साथ सम्पर्क के द्वारा (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रस के सञ्चारवाले होकर (ध्रुवे सीदतम्) = तुम ध्रुव होकर इस मर्यादावाले घर में आसीन होओ। प्रभु- सम्पर्क से तुम्हें शक्ति प्राप्त हो। तुम्हारा जीवन मर्यादित हो और सारा घर मर्यादा में चलनेवाला हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- पति-पत्नी क्रियाशील व पवित्रतावाले हों। प्रतिदिन प्रभु -सम्पर्क से अपने को प्रकृष्ट बलवाला बनाते हुए ये मर्यादा का पालन करनेवाले होकर घर में निवास करें।

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