यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 15
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - वसन्तर्तुर्देवता
छन्दः - विकृतिः
स्वरः - मध्यमः
0
अ॒यं पु॒रो हरि॑केशः॒ सूर्य॑रश्मि॒स्तस्य॑ रथगृ॒त्सश्च॒ रथौ॑जाश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। पु॒ञ्जि॒क॒स्थ॒ला च॑ क्रतुस्थ॒ला चा॑प्स॒रसौ॑ द॒ङ्क्ष्णवः॑ प॒शवो॑ हे॒तिः पौरु॑षेयो व॒धः प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥१५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। पु॒रः। हरि॑केश॒ इति॒ हरि॑ऽकेशः। सूर्य॑रश्मि॒रिति॒ सूर्य॑ऽरश्मिः। तस्य॑। र॒थ॒गृ॒त्स इति॑ रथऽगृ॒त्सः। च॒। रथौ॑जा॒ इति॒ रथ॑ऽओजाः। च॒। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒ण्यौ᳖। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒न्याविति॑ सेनानीग्राम॒न्यौ᳖। पु॒ञ्जि॒क॒स्थ॒लेति॑ पुञ्जिकऽस्थ॒ला। च॒। क्र॒तु॒स्थ॒लेति॑ क्रतुऽस्थ॒ला। च॒। अ॒प्स॒रसौ॑। द॒ङ्क्ष्णवः॑। प॒शवः॑। हे॒तिः। पौरु॑षेयः। व॒धः। प्रहे॑ति॒रिति॒ प्रऽहे॑तिः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयम्पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस्तस्य रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्या । पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसौ दङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस्तेभ्यो नमो अस्तु ते नो वन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। पुरः। हरिकेश इति हरिऽकेशः। सूर्यरश्मिरिति सूर्यऽरश्मिः। तस्य। रथगृत्स इति रथऽगृत्सः। च। रथौजा इति रथऽओजाः। च। सेनानीग्रामण्यौ। सेनानीग्रामन्याविति सेनानीग्रामन्यौ। पुञ्जिकस्थलेति पुञ्जिकऽस्थला। च। क्रतुस्थलेति क्रतुऽस्थला। च। अप्सरसौ। दङ्क्ष्णवः। पशवः। हेतिः। पौरुषेयः। वधः। प्रहेतिरिति प्रऽहेतिः। तेभ्यः। नमः। अस्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। मृडयन्तु। ते। यम्। द्विष्मः। यः। च। नः। द्वेष्टि। तम्। एषाम्। जम्भे। दध्मः॥१५॥
विषय - हरिकेश
पदार्थ -
१. राष्ट्र में राजा 'परमेष्ठी' = सर्वोच्च स्थान में स्थित है। (अयम्) = यह (पुर:) = राष्ट्र का पालन व पूरण करनेवाला है। [पृ पालनपूरणयोः] अथवा राष्ट्र को आगे ले चलनेवाला है [पुर:= आगे, fore ] । २. (हरिकेशः) = [ केशाः रश्मयः काशनाद्वा - नि० १२/२६ ] इसकी ज्ञानरश्मियाँ राष्ट्र के कष्टों का हरण करनेवाली हैं। (सूर्यरश्मिः) = सूर्य के समान इसकी ज्ञानरश्मियाँ सारे राष्ट्र को प्रकाशित करनेवाली हैं। स्वयं यह 'सर्ववेदवित्' बना है। इसने ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करके सारे राष्ट्र में ज्ञान के फैलाव की व्यवस्था की है। यह ज्ञान लोगों के दुःखों का हरण करनेवाला हुआ है। ३. (तस्य) = आगे ले चलनेवाले राजा का (रथगृत्सः) = [रथेगृत्सः मेधावी ] रथ में निपुण (सेनानी:) = सेनापति है तथा (रथौजा:) = [रथे ओजो यस्य] रथ के क्षेत्र में ओजस्वी ग्रामणी- ग्रामनायक है। इसके ये दोनों परिचारक 'वासन्तिकौ तौ ऋतू - श० ८ ६ । १ । १६' प्रजा का उत्तम निवास करनेवाले तथा उनकी जीवन-मर्यादा को ऋतुओं की भाँति व्यवस्थित करनेवाले हैं। सेनापति ने रथगृत्स होना ही है। ग्रामणी ने भी प्रजा के निरीक्षण के लिए रथौजा ही होना है, कुर्सी के ओजवाला नहीं। ४. इस राजा की सेना के दृष्टिकोण से 'पुञ्जिकस्थला' अप्सरा है तथा ग्राम के दृष्टिकोण से 'क्रतुस्थला' अप्सरा है पुञ्जिकस्थला (क्रतुस्थला च अप्सरसौ) = [पुञ्जिकस्य स्थलं यस्याः] सेना को पुञ्जीभूत - न तितर-बितर हुआ हुआ रखनेवाला अफ़सर है तथा ग्राम को [ क्रतूनां स्थलं यस्याः ] यज्ञों का स्थल बनानेवाला अफ़सर है [अप्रस्-अफ़सर, officer ] । सेनानी का मुख्य कार्य सेना को सङ्गठित रखना है, ग्रामणी का मुख्य कार्य ग्राम में यज्ञादि उत्तम कार्यों का प्रवर्त्तन है । ५. सेनानी के दृष्टिकोण से (दक्ष्णवः पशवः) = दशनशील पशु - व्याघ्रादि की भाँति शत्रुसैन्य को चीर-फाड़ देनेवाले सैनिक हेतिः वज्र हैं, प्रहार के साधन हैं तथा ग्रामणी के दृष्टिकोण से (पौरुषेयः) = फाँसी के लिए नियुक्त पुरुष के द्वारा किया जानेवाला (वधः) = वध (प्रहेतिः) = प्रकृष्ट वज्र है। वस्तुतः इस पौरुषेय वध के द्वारा ही राष्ट्र में होनेवाले बड़े पापों की समाप्ति की जा सकती है। एक ब्लैकमार्केटिंग करनेवाले के फाँसी पर चढ़ते ही सब व्यापार शुद्ध हो जाता है एवं यह 'पौरुषेय वध' सचमुच 'प्रहेति' = प्रकृष्ट वज्र है। ६. (तेभ्यः) = उनके (पुर:) = सामने (यः) = जो अग्नि है और उसके सेनानी व ग्रामणी हैं तथा उसके अप्सरस् हैं और जो हेति, प्रहेति हैं, इन सबके लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार है। (ते नः अवन्तु) = ये सब हमारी रक्षा करें। (ते नः मृडयन्तु) = ये हमें सुखी करें। ते वे हम सब (यं द्विष्मः) = जिस भी व्यक्ति को प्रीति नहीं कर पाते (यः च) = और जो (नः द्वेष्टि) = हम सबके साथ द्वेष करता है (तम्) = उसे (एषाम्) = इन (सेनानी) = ग्रामणी आदि के (जम्भे) = दंष्ट्राकराल न्याय के जबड़ों में (दध्मः) = स्थापित करते हैं, स्वयं क़ानून को हाथ में न लेकर हम उसे इन न्यायाधीशों को सौंपते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - राजा राष्ट्र को आगे ले चलनेवाला, दुःख का हरणकारी, ज्ञान से परिपूर्ण, सूर्य के समान ज्ञान की रश्मियों से प्रजा में प्रकाश फैलानेवाला हो। इसके परिचारक रथों से प्रजा में विचरण करनेवाले हों-कुर्सियों को ही सँभाले रखनेवाले नहीं।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal