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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 46
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    ए॒भिर्नो॑ऽअ॒र्कैर्भवा॑ नोऽअ॒र्वाङ् स्व॒र्ण ज्योतिः॑। अग्ने॒ विश्वे॑भिः सु॒मना॒ऽअनी॑कैः॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒भिः। नः॒। अ॒र्कैः। भव॑। नः॒। अ॒र्वाङ्। स्वः॑। न। ज्योतिः॑। अग्ने॑। विश्वेभिः। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अनी॑कैः ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एभिर्नाऽअर्कैर्भवा नोऽअर्वाङ्स्वर्ण ज्योतिः । अग्ने विश्वेभिः सुमनाऽअनीकैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एभिः। नः। अर्कैः। भव। नः। अर्वाङ्। स्वः। न। ज्योतिः। अग्ने। विश्वेभिः। सुमना इति सुऽमनाः। अनीकैः॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    १. प्रभु कहते हैं कि (एभिः नः अर्कैः) = [अर्को मन्त्रः, अर्चन्त्येनन] = इन हमारे मन्त्रों के द्वारा - सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान के रूप में दिये गये इन मन्त्रों से तू (नः भव) = हमारा बन । प्रभुभक्त की सर्वोत्तम पहचान यही होनी चाहिए कि वह प्रभु की दी गई वाणी को पढ़ता हो। २. इस वाणी से ज्ञान प्राप्त करके तू (अर्वाङ) = नीचा- नम्र बन । 'ब्रह्मणा अर्वाङ् विपश्यति' ज्ञान से मनुष्य नम्र बनता ही है। 'विद्या ददाति विनयम् = विद्या विनय देती है। 'अहंभावोदयाभावो ज्ञानस्य परमावधि:' ज्ञान की चरम सीमा अहंकार का नितान्त अभाव ही है। मूर्ख ही सर्वज्ञता का गर्व करता है। ज्ञानी अपने ज्ञान की सीमा व अल्पता को समझता हुआ गर्वित नहीं होता। ३. (स्वः न ज्योतिः) = [स्वः आदित्य:- म०] इस नम्रता के परिणामस्वरूप सूर्य के समान देदीप्यमान तेरा ज्ञान हो, अथवा तू स्वर्ण के समान चमकते हुए ज्ञानवाला हो। ४. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (विश्वेभिः अनीकैः) = सम्पूर्ण तेजस्विताओं के साथ [अनीक=splendour, brilliance तेजस्] तू (सुमनाः) = उत्तम मनवाला हो, अर्थात् स्वस्थ तेजोमय शरीर में तू उत्तम स्वस्थ मनवाला बन।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के लिए मन्त्र में पाँच बातों का संकेत है। १. वेद - मन्त्राध्ययन, २. नम्रता, ३. सूर्य के समान ज्ञान से दीप्त होना औरों को भी अपने जीवन से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराना, ४. तेजस्विता और ५. सौमनस्य ।

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