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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 54
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उद् बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्त्ते सꣳसृ॑जेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। बु॒ध्य॒स्व॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। जा॒गृ॒हि॒। त्वम्। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्ते इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। सम्। सृ॒जे॒था॒म्। अ॒यम्। च॒। अ॒स्मिन्। स॒ध॒स्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अधि॑। उत्त॑रस्मि॒न्नित्युत्ऽत॑रस्मिन्। विश्वे॑। दे॒वाः॒। यज॑मानः। च॒। सी॒द॒त॒ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सँ सृजेथामयञ्च । अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन्विस्वे देवा यजमानाश्च सीदत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। बुध्यस्व। अग्ने। प्रति। जागृहि। त्वम्। इष्टापूर्त्ते इतीष्टाऽपूर्त्ते। सम्। सृजेथाम्। अयम्। च। अस्मिन्। सधस्थ इति सधऽस्थे। अधि। उत्तरस्मिन्नित्युत्ऽतरस्मिन्। विश्वे। देवाः। यजमानः। च। सीदत॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र की समाप्ति यज्ञ का विस्तार करने पर हुई थी। उसी यज्ञ का वर्णन करते हुए कहते हैं कि (अग्ने) = हे अग्ने ! तू (उद्बुध्यस्व) = उद्बुद्ध हो। उद्बुद्ध अग्नि ही तो हमारे घृत व सामग्री आदि पदार्थों को देवों में ले जाएगी। २. (त्वं प्रतिजागृहि) = तू प्रत्येक घर में जागरित हो। वैदिक राष्ट्र में कोई घर ऐसा नहीं होता जहाँ अग्निहोत्र न होता हो। अग्निकुण्ड में भी दाएँ-बाएँ, पूर्व-पश्चिम व मध्य सर्वत्र अग्नि प्रज्वलित हो जाए और सामग्री को छिन्न-भिन्न करके सर्वत्र विस्तृत करने के लिए उद्यत हो जाए। ३. हे अग्ने ! (त्वम्) = तू (अयं च) = और यह यजमान दोनों मिलकर (इष्टापूर्ते) = इष्ट और आपूर्त को (सृजेथाम्) = सम्यक्तया करनेवाले होओ। यह यजमान 'इष्ट को करे', अर्थात् तेरे साथ घृत व हव्य का सम्पर्क करे। [यज्= सङ्गतीकरण] और तू उस घृत व हव्य को सूक्ष्म कणों में विभक्त करके 'आ-पूर्त'=चारों ओर सारे वायुमण्डल में भर दे । ४. अस्मिन् सधस्थे इस यज्ञस्थल में जोकि घर के सब व्यक्तियों का सधस्थ है, मिलकर बैठने का स्थान है तथा ५. (अध्युत्तरस्मिन्) = जोकि घर में सर्वोत्कृष्ट स्थान है। वेद में ('हविर्धानमग्निशालं पत्नीनां सदनं सदः । सदो देवानामसि देवि शाले') = इन शब्दों में घर में सर्वप्रथम स्थान ('हविर्धान') = अग्निहोत्र के कमरे को ही दिया है। ६. इस सर्वोत्कृष्ट स्थान में (विश्वेदेवाः) = घर के सब छोटे-बड़े व मध्यम आयुष्यवाले देव-दिव्य प्रवृत्तियोंवाले व्यक्ति (यजमानः च) = और घर का सबसे बड़ा यज्ञशील पुरुष भी (सीदत) = मिलकर बैठें और प्रेम से प्रभु प्रार्थना करते हुए इस यज्ञ को सिद्ध करें।

    भावार्थ - भावार्थ - घर - घर में अग्निहोत्र हो । अग्नि में डाले हुए घृतादि पदार्थों को अग्नि सारे आकाश में भर देता है। [pours पूरयति] । इस आपूर्ति के द्वारा यह यज्ञाग्नि वायुमण्डल को तो शुद्ध करता ही है साथ ही ये घृतादि पदार्थ सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर वृष्टिजल के बिन्दुओं का केन्द्र बनकर वृष्टि में भी सहायक होते हैं। यह बरसकर भूमि में होनेवाले अन्न कणों का अंश बनते हैं और इस प्रकार फिर से हमें प्राप्त हो जाते हैं।

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