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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 14
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
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    ये दे॒वा दे॒वेष्वधि॑ देव॒त्वमाय॒न् ये ब्रह्म॑णः पुरऽए॒तारो॑ऽअ॒स्य। येभ्यो॒ नऽऋ॒ते पव॑ते॒ धाम॒ किञ्च॒न न ते दि॒वो न पृ॑थि॒व्याऽअधि॒ स्नुषु॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः। दे॒वेषु॑। अधि॑। दे॒व॒त्वमिति॑ देव॒ऽत्वम्। आय॑न्। ये। ब्रह्म॑णः। पु॒र॒ऽए॒तार॒ इति॑ पुरःऽए॒तारः॑। अ॒स्य। येभ्यः॑। न। ऋ॒ते। पव॑ते। धाम॑। किम्। च॒न। न। ते। दि॒वः। न। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। स्नुषु॑ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा देवेष्वधि देवत्वमायन्ये ब्रह्मणः पुरऽएतारोऽअस्य । येभ्यो नऽऋते पवते धाम किङ्चन न ते दिवो न पृथिव्या अधि स्नुषु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। देवेषु। अधि। देवत्वमिति देवऽत्वम्। आयन्। ये। ब्रह्मणः। पुरऽएतार इति पुरःऽएतारः। अस्य। येभ्यः। न। ऋते। पवते। धाम। किम्। चन। न। ते। दिवः। न। पृथिव्याः। अधि। स्नुषु॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (देवा:) = विद्वान् लोग (देवेषु) = विद्वानों में (अधिदेवत्वम्) = आधिक्येन विद्वत्ता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं। जो ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं और इस ज्ञान को प्राप्त करके २. (ये) = जो (अस्य ब्रह्मण:) = इस ज्ञान को (पुरः) = आगे (एतार:) = ले-जानेवाले होते हैं [एतार इति अन्तर्भावितण्यर्थः प्रापयितार : गमयितार:]। ये विद्वान् ज्ञान प्राप्त करके इसे दूसरों को प्राप्त करानेवाले होते हैं, उसी प्रकार जैसेकि 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' ने प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके अपने अन्य अज्येष्ठ, अकनिष्ठ भ्राताओं को ज्ञान दिया। चार सर्वोत्कृष्ट बुद्धिवालों ने हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुना और उस प्रेरणा को औरों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसी प्रकार ये उत्कृष्ट ज्ञानी सर्वत्र ज्ञान का प्रसार करते हैं, जहाँ ये जाते हैं वहीं वातावरण को बड़ा पवित्र बना डालते हैं। इसी लिए मन्त्र में कहते हैं कि २. (येभ्यः ऋते) = जिनके बिना (किञ्चन धाम) = कोई भी स्थान (न पवते) = पवित्र नहीं होता। ये लोग ज्ञान की चर्चा के द्वारा पवित्रता का सञ्चार करनेवाले होते हैं। जहाँ इस प्रकार के ज्ञानी नहीं पहुँचते वहाँ अज्ञानान्धकार फैलकर वातावरण को बड़ा दूषित कर देता है । ४. ये विद्वान् प्रजा के हित के लिए प्रजाओं में ही विचरण करते हैं। ये संसार को मायाजाल व अशान्ति का स्थान मानकर इससे दूर नहीं भाग जाते। (ते) = वे विद्वान् (दिवः) = द्युलोक के अथवा (पृथिव्याः) = पृथिवी के (अधिस्नुषु) = पर्वत शिखरों पर (नः) = नहीं भाग जाते, इसी प्रकार ये विद्वान् संन्यासी भी अशान्ति के भय से कहीं स्वर्गलोक में व पर्वत शिखरों पर नहीं भागे फिरते। 'स्वर्गलोक में या पर्वत शिखरों पर यह मुहावरा है, केवल इसी बात को स्पष्ट करने के लिए कि ये विद्वान् यहीं लोगों में ही रहते हैं। दूर शान्त स्थानों को नहीं ढूँढते रहते। दूर भागनेवाले संन्यासी ने क्या लोकहित करना ?

    भावार्थ - भावार्थ- हम ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञानी बनें। ज्ञान को चारों ओर फैलाने का प्रयत्न करें। ज्ञान को फैलाकर वातावरण को पवित्र बनाएँ। अज्ञानावृत लोगों से घृणा करके सुदूर पर्वतशिखरों पर न भागे फिरें।

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