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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    किस्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रम्भ॑णं कत॒मत् स्वि॑त् क॒थासी॑त्। यतो॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न् वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्यामौर्णोन्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम्। स्वि॒त्। आ॒सी॒त्। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। आ॒रम्भ॑ण॒मित्या॒ऽरम्भ॑णम्। क॒त॒मत्। स्वि॒त्। क॒था। आ॒सी॒त्। यतः॑। भूमि॑म्। ज॒नय॑न्। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। वि। द्याम्। और्णो॑त्। म॒हि॒ना। वि॒श्वच॑क्षा॒ इति॑ वि॒श्वऽच॑क्षाः ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किँ स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणङ्कतमत्स्वित्कथासीत् । यतो भूमिञ्जनयन्विश्वकर्मा वि द्याऔर्णान्महिना विश्वचक्षाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    किम्। स्वित्। आसीत्। अधिष्ठानम्। अधिस्थानमित्यधिऽस्थानम्। आरम्भणमित्याऽरम्भणम्। कतमत्। स्वित्। कथा। आसीत्। यतः। भूमिम्। जनयन्। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। वि। द्याम्। और्णोत्। महिना। विश्वचक्षा इति विश्वऽचक्षाः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र में कहा है कि विश्वकर्मा ने सृष्टि का निर्माण किया। संसार में अधिष्ठानरहित लोग किसी वस्तु को करते हुए नहीं देखे जाते, अतः प्रश्न करते हैं कि (अधिष्ठानं किं स्वित् आसीत्) = [अधितिष्ठत्यस्मिन् इति] अधिकरण क्या था ? कहाँ स्थित होकर प्रभु ने इस सृष्टि का निर्माण किया। २. फिर जैसे घटादि के निर्माण के लिए मिट्टी उपादान होती है इसी प्रकार इस सृष्टि के निर्माण के लिए [आरभ्यते अस्मात् इति] (आरम्भणं कतमत् स्वित्) = उपादानकारण कौन सा था ? ३. जैसे चक्र, मृत्तिका, सलिल आदि से घट का निर्माण होता है, इसी प्रकार यहाँ सृष्टि निर्माण में (कथा आसीत्) = (कथंभूता क्रिया आसीत्) क्रिया किस प्रकार हुई ? ४. एवं अधिष्ठान, आरम्भण व क्रिया के विषय में प्रश्न करके कहते हैं कि (यतः) = जिनके होने पर, अर्थात् जिनसे (विश्वकर्मा) = उस संसार के निर्माता प्रभु ने भूमिं द्यां च जनयन् पृथिवी और द्युलोक का उत्पादन करते हुए (महिना) = अपनी महिमा से (वि और्णोत्) = इनको विशिष्ट रूप से आच्छादित किया, इस प्रकार जैसे माता बच्चे को गोद में लेकर सुरक्षित करती है, उसी प्रकार वे प्रभु (विश्वचक्षाः) = इस संसार का ध्यान कर रहे हैं [चक्ष् to look after] ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु अपनी महिमा से प्रकृति को इस विकृति व विसृष्टि का रूप देते हैं। इस सृष्टि का धारण भी वे प्रभु ही कर रहे हैं। वे सारे ब्रह्माण्ड का ध्यान करते हैं।

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